________________
अथसिद्धपुरसत्थवाहं वीरं नमिऊण वरं जिणनाहं ।
सवणसुहारससरिअं वुच्चामि विवेगमंजरी अं ॥1॥ रचनाकार ने ग्रन्थ के अन्त में संक्षिप्त प्रशस्ति देते हुए कहा है
रइयं पगरणमेयं जिणपवयणसारसंगहेण मए। सम्मसम्मत्त वियसेडंबरं दिव्वउ भवियाणं ॥143 ।। सिरिभिन्नमालनिम्मलं कुलसंभवकडुयरायतणएण। इय आसडेण रइयं वसुजलहिदिणेसवरिसंमि ।। 144 ।।
इति श्री विवेकमंजरी प्रकरणं संपूर्ण "जिन प्रवचन के सार-संक्षेप से मैंने यह प्रकरण रचा है जो भव्य जीवों के लिए सम्यक् सम्यक्त्व रूप दिव्य धर्म को विकसित करता है।
श्री भिल्लमाल (भिन्नमाल) नामक पवित्र क्षत्रिय वंश में उत्पन्न कटुकराज के पुत्र आसड ने 1248 (वि.सं.) वर्ष में इसकी रचना की।" (वसु-8, जलहि-4, दिनेस
12)
इस कृति में रचनाकार ने टीका भी दी है जिसकी भाषा स्पष्ट प्रतीत नहीं होती, किन्तु अध्ययन से लगता है कि गुजराती भाषा में लिखी इस टीका में अपभ्रंशों और राजस्थानी का पूर्ण प्रभाव है। (1) परिचय
महाकवि आसड द्वारा रचित विवेकमंजरी प्रकरण में कुल 144 गाथाएं हैं। रचनाकार द्वारा दी गई अपनी प्रशस्ति से यह पता चलता है कि भिन्नमाल (भिल्लमाल) नामक क्षत्रिय वंश में कटुकराज के आप पुत्र थे। जिन्होंने विवेकमंजरी ग्रंथ लिखा। इनकी पृथ्वीदेवी और जैतल्ल नाम की दो पत्नियां थीं। जैतल्ल देवी से इन्हें राजड और जैत्रसिंह नाम के दो पुत्र हुए थे।' इनकी उपदेशकंदली और विवेकमञ्जरी पर वृत्ति, कालीदास कृत मेघदूत पर टीका और अनेक स्त्रोत काव्यों जैसी रचनाएं प्राप्त होती हैं। विवेकमंजरी की वृत्ति में जो प्रशस्ति कवि आसड ने दी है उससे ज्ञात होता है कि इन्हें कलिकाल गौतम, कवि सभाशृंगार और बाल सरस्वती पदवियां (अलंकरण) प्राप्त थीं। उन्होंने अपने राजड पुत्र की तरुण अवस्था में हुई मृत्यु से उत्पन्न शोक में अभयदेवसूरि द्वारा बोध प्राप्त कर विवेकमंजरी नामक काव्य की रचना वि. सं. 1248 में की। अपने समय का उल्लेख करते हुए कवि आसड ने लिखा है कि 'इय आसडेण रइयं वसुजलहिदिणेसवरिसंमि' अर्थात वसु-8 जलहि-4 और दिनेस-12 इस प्रकार का उल्लेख कवि की अपनी रचना वैशिष्ट्य का द्योतक है। रचनाकार ने 1248 को कौनसा संवत् माना है, इसका स्पष्ट उल्लेख प्रति में नहीं किया है। किन्तु मध्ययुग में वि.सं. का प्रचलन होने से इसे विद्वानों ने 1248 वि.सं. की कृति ही माना है।
70
R
amn] तुलसी प्रज्ञा अंक 110
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org