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पाण्डुलिपि विवेक मञ्जरी प्रकरण : एक अध्ययन
- प्रमोद कुमार लाटा
प्राकृत साहित्य में तीर्थंकरों, महापुरुषों और आचार्यों आदि की स्तुतियाँ परम्परा अनुसार प्राप्त होती हैं । आगम साहित्य में भी यह परम्परा देखने को मिलती है। आचार्यों ने भक्तिवशात् और अपने इष्ट के प्रति समर्पण हेतु अनेक प्रकार से स्तुतियां और स्रोत आदि लिखे हैं । प्रकरण के रूप में भी विवेक को आधार मानकर उसका स्वरूपं, महत्व और उसके फल आदि को प्रदर्शित करने के लिए - महाकवि आसड ने विवेकमंजरी नामक प्रकरण ग्रन्थ लिखा । यह आकार में लघु होते हु भी जैनदर्शन और कथा के बीजों को समाविष्ट किए हुए है। विवेकमंजरी नामक प्रकरण ग्रंथ की प्रति जैन विश्वभारती संस्थान के ग्रंथागार से मुझे प्राप्त हुई । संग्रहणीय पाण्डुलिपियों की सूची में पुट्ठा नं. 268 / पुस्तक क्रमसंख्या 1547 पर अंकित यह पाण्डुलिपि कुल आठ पन्नों (सोलह पृष्ठ) में है। संस्थान के ग्रंथागार में दो प्रति उपलब्ध थी । स्नातकोत्तर में लघुशोध प्रबन्ध हेतु इस कृति को सम्पादन के लिए चयन किया । किन्तु समयबद्धता के कारण अन्यत्र इसकी खोज करना सम्भव नहीं हो पाया । अन्यथा सुदूर स्थित ग्रंथागारों में इस कृति के प्राप्त होने की संभावना हो सकती थी । फिर भी मैंने एक ही प्रति के आधार पर इसका अनुवाद एवं अध्ययन किया है। इसलिए भविष्य में अन्य प्रतिलिपियों के उपलब्ध हो जाने पर संपादन का अवसर खुला है।
प्रकरणक
इस कृति में महाकवि आसड ने परम्परा का निर्वाह करते हुए सर्वप्रथम मंगलाचरण किया है। जिसमें तीर्थंकर महावीर को प्रणाम करते हुए विवेकमंजरी प्रकरण को कहने का कवि ने उल्लेख किया है । ग्रन्थ का प्रारम्भ इस प्रकार है—
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
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