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________________ बौद्धाचार्यों ने अधिक से अधिक तीन अवयवों को माना है। यथा-हेतु, दृष्टान्त और उपनय । उन्होंने प्रतिज्ञा और निगमन को अवयव नहीं माना है। बौद्ध नैयायिकों का कहना है जो हेतु (लिंग) साध्य का नियत है अर्थात् व्याप्य है और वह साध्य धर्मी में (अर्थात् पक्ष में) देखा जाता है तो उसके आधार पर ही वहां की आवश्यकता नहीं है। इसी बात को धर्मकीर्ति इस प्रकार कहते हैं, 'द्वयोरप्यनयोः प्रयोगो नावश्यं पक्ष निर्देशः'34 परार्थानुमानयोः साधर्म्यवत् और वैधर्म्यवत् रूप में दो प्रकार से होता है। इन दोनों प्रकारों में पक्ष निर्देश की आवश्यकता नहीं है। पक्ष निर्देश शब्द को व्याख्यायित करते हुए रूसी न्यायशास्त्री श्चरवात्स्की का कहना है कि यहाँ पक्ष निर्देश शब्द को व्याख्यायित करते हुए पक्ष निर्देश शब्द से नैयायिकों का प्रतिज्ञा वाक्य व निगमन वाक्य इन दोनों का ग्रहण करके उन्हें अनावश्यक बताया गया है। धर्मकीर्ति यह बताना चाहते हैं कि तादात्म्य और तदुत्पत्ति के द्वारा साध्य धर्म से प्रतिबद्ध साधन को जानना होता है, इसलिए वहां पक्ष को निर्देश करने की आवश्यकता नहीं है। साध्य का व्याप्त हेतु जब पक्ष में दिखाई पड़ रहा है। जैसे- यत् सत् तत् क्षणिकं यथा घटः सन् च शब्द इति शब्दः क्षणिकः । यहां पर सत्व हेतु है, उदाहरण घट है। सन् च शब्द: यह उपनय है। तीन वाक्यों से जब शब्द का क्षणिकत्व सिद्ध हो जाता है तब उसके लिए प्रतिज्ञा और निगमन वाक्य की कोई आवश्यकता नहीं है। निगमन वाक्य तो प्रतिज्ञा को फलितार्थ रूप में रूपान्तरित . करता ही है। यहां पर ध्यातव्य है कि सत्व हेतु क्षणिकत्व का साध्य है और वह साध्य धर्मी पक्ष साध्य में देखा जाता है। अतः उसके द्वारा शब्द के क्षणिकत्व की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है। इस प्रकार बौद्धदर्शन परार्थानुमान के लिए अवयवों के प्रयोग में प्रतिज्ञा और निगमन को अनावश्यक मानता है किन्तु जैन दर्शन बौद्ध की इस मान्यता का निराकरण करता है। यद्यपि जैन दर्शन हेतु के नैयायिकाभिमत पंचरूप को और बौद्धाभिमत त्रिरूप से सहमत नहीं है। वह प्रतिपत्ता की समझने की क्षमता के आधार पर पंचावयव हेतु के प्रयोग को करने में कोई आपत्ति नहीं करता है। सन्दर्भ :1. प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजाति निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञाननिःश्रेयसाधिगमः-न्यायसूत्र 1/1/1 2. प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः-वही 1/1/32 3. साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा-वही 1/1/33 4. उदाहरणसाधर्म्यात्साध्यसाधनं हेतुः - वही 1/1/34 5. साध्यसाधर्म्यात्तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम् 1/1/36 6. उदाहरणापेक्षस्तथेत्युपसंहारो न तथेति वा साध्यस्योपनयः वही 1/1/38 7. हेत्वपदेशात्प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् 1/1/39 8. न्यायवार्तिक 1/1/32 9. यथा पंचावयववाक्य साधनार्थम्-तर्कशास्त्र पृ. 5 तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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