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________________ उक्त प्रकार के पंचावयव से दूसरा व्यक्ति भी धूमलिंगक वह्रि की अनुमिति कर लेता है। बौद्धाचार्य न्यायदर्शन व जैन दर्शन की पंचावयवी मान्यता से सहमत नहीं है। ध्यातव्य है कि बौद्धाचार्यों ने पंचावयवों का समर्थन कभी नहीं किया। दिङ्नाग ने पक्ष, हेतु, दृष्टान्त तीन अवयवों को बताया। धर्मकीर्ति ने द्वयवयव को ही महत्त्व दिया, वे हैंहेतु और दृष्टान्त। जैनाचार्यों ने एक, दो, तीन, चार और पांच अवयव वाली मान्यता को भी वर्णित किया है। अकलंक ने पक्ष और हेतु दो ही अवयवों को समीचीन बतलाया है। उन्होंने दृष्टान्त को भी ग्राह्य बतलाया है किन्तु वह सर्वत्र ग्राह्य नहीं है। माणिक्यनन्दिर, प्रभाचन्द्र, देवसूरि भी आचार्य अकलंक और विद्यानंद का अनुगमन करते हैं। आचार्य हेमचन्द्र एवं अभिनव धर्मभूषण भी अकलंक की मान्यता का समर्थन करते हैं। वादिदेवसूरि ने धर्मकीर्ति की तरह अतिव्युत्पन्न मति वाले विद्वान् के लिए केवल हेतु का प्रयोग बतलाया है। अन्य सभी जैनाचार्य चाहे वे दिगम्बर परम्परा के हों या श्वेताम्बर उन्होंने न्यूनतम दो अवयव अवश्य स्वीकार किये हैं। प्रतिपाद्यों के आधार पर तीन-चार और पांच अवयवों को भी मान्यता दी है। आचार्य धर्मभूषण ने पहले स्वीकृत परम्परा के अनुरूप वाद कथ्य की अपेक्षा से और अधिक अवयवों के भी प्रयोग का समर्थन किया है। जैसा कि उन्होंने कहा हैवीतराग कथा में तो शिष्यों के आशयानुसार प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवयव हैं। प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ये तीन भी। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय ये चार भी हैं तथा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पांच भी हैं। इस प्रकार यथायोग रूप प्रयोगों की यह व्यवस्था है। ऐसा कहते हुए धर्मभूषण श्री कुमारिनन्दि भट्टारक के कथन को उद्धृत करते हैं। यथा-प्रयोगों के बोलने की व्यवस्था प्रतिपाद्यों के अभिप्रायानुसार करनी चाहिए। जो जितने अवयवों से समझ सके (अनुमान कर सके) उसके लिए उतने अवयवों का प्रयोग करना चाहिए।'28 ऊपर वर्णित सभी आचार्यों की भांति आचार्य यशोविजय ने भी पक्ष और हेतु दो ही अवयव माने हैं। यह मान्यता समर्थ प्रतिपत्ता के लिए है। असमर्थ के लिए दृष्टान्त का प्रयोग करते हैं। जो दृष्टान्त में हेतु का प्रयोग नहीं जानता उस प्रतिवत्ता के लिए उपनय का प्रयोग तथा जो उपनय के पश्चात् भी आकांक्षा रखता है उसके लिए निगमन अवयव का प्रयोग किया जाता है।31 जैनाचार्यों द्वारा वर्णित अवयवों की मान्यता में विशेष रूप से पक्ष और हेतु दो अवयव मान्य हैं। उनकी यह मान्यता उनके एक लक्षण हेतु की मान्यता को पुष्ट करती है, क्योंकि कहा है-साधन से साध्य का विशेष ज्ञान ही अनुमान प्रमाण है। जैनाचार्यों ने सिषाधयिषित असिद्ध और अबाधित साध्य को पक्ष कहा है। इस प्रकार पक्ष और हेतु क्रमशः साध्य व साधन के रूप में वर्णित हैं और अन्यथानुपपन्नत्व रूप एक लक्षण हेतु के आधार है। amsamanny तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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