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________________ बुद्धि द्वारा बोध करे इसके बुद्धिमय स्वरूप को तब विज्ञानमय कोष कहतें जब आत्मन इन चारों कोषों के साथ बड़ के बीज में वृक्ष की तरह अपने कारणरूप अबोध में रहता है तब उसे आनंदमय कोष कहतें। (6) तभी इसे आत्मा कीजाग्रत अवस्था कहते, जब स्थूल विषय तो जहां न हों पर जाग्रति की वासना रहे इन्हीं चौदह अभिकरणों से जीव विषयादि भोगता है तभी उसे आत्मा की स्वप्न अवस्था कहतें। जब ये चौदह अभिकरण शांत हो जाएं भोगों का ज्ञान जब नहीं रहे विषयादि भी ग्रहण न करे तभी उसे आत्मा की सुषुप्ति अवस्था कहते। जब आत्मा उक्त तीनों अवस्थाओं के उत्पत्ति व लय को जाने इनसे निरन्तर परे रहे ऐसा जो नित्य-साक्षी चैतन्य है वह ही तो तुरीय चैतन्य है और इसे इसे ही आत्मा की तुरीय अवस्था कहतें। जब अंतर में सुख-दुःख की दृष्टि से इष्ट की इच्छा रहती यही सुख-बुद्धि, और जो अनिष्ट की आशंका रहती यही दुःख-बुद्धि। सुख को पाने दुःख को त्यागने जीव जो भी क्रियाएं करता उन्हीं के कारण वह जीव कर्ता कहलाता । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध सब ये पांच विषय सुख-दुःख के कारण हैं पुण्य-पाप कर्मों का अनुसरण करने वाला आत्मा शरीर की संयोग प्राप्ति को अप्राप्त होते हुए भी जब प्राप्त देखे उसे ही जीव कहतें। अन्न से निर्मित कोषों के समूह स्वरूप शरीर धरे को अन्नमय कोष कहतें। जब प्राण आदि चौदह वायु इस अन्नमय कोष का संचार करते तब उसे प्राणमय कोष कहतें। जब इन दो कोषों के भीतर मन इन्द्रियादि चौदह अभिकरणों से करता विषयों का चिन्तन इसे मनोमय कोष कहतें। जब आत्मन इन तीनों कोषों से युक्त हो (7) मन आदि, प्राण आदि इच्छा आदि, सत्व आदि पुण्य आदि तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 ERONARIES 208 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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