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इनका पंच समूह जो है पंच वर्ग इसको कहतें। इस पंच वर्ग के स्वभाव वाला जीवात्मा बिना ज्ञान के इनसे मुक्ति न पा सकता मन आदि सूक्ष्म तत्वों की उपाधि जो आत्मा को सदैव प्रतीत होती वही लिंग शरीर कहलाती और वही हृदय-ग्रंथि।
(12) सत्य, ज्ञान, अनंत, आनंदरूप सर्व उपाधि रहित आत्मा कड़ा, मुकुट आदि नाम रहित हो केवल शुद्ध स्वर्ण जैसा ज्ञान और चैतन्य रूप में
आत्मा जब भासमान होता तब ही ऐसी विशुद्धता को त्वं नाम से पुकारा जाता।
(8) उसमें प्रकाशित चैतन्य जो है वह ही क्षेत्रज्ञ कहलाता है।
ब्रह्म, सत्य, अनंत, ज्ञानरूप जो आत्मा है अविनाशी है सत्य वही। देश, काल, वस्तु आदि इन सबका नाश होने पर भी जिसका नाश न होता है वह आत्मा ही अविनाशी ।
(9) ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की उत्पत्ति तथा लय का ज्ञाता स्वयं उत्पत्ति-लय रहित जब आत्मा तब यह साक्षी कहलाता।
उत्त्पत्ति, विनाश से रहित नित्य चैतन्य जो है उसको ही ज्ञान कहते।
(10) ब्रह्मा से ले चींटी तक में सभी की बुद्धि में रहने वाला इन्हीं सभी के स्थूल, सूक्ष्मादि देहों का नाश हो जाने पर जो शेष रहता दिखाई देता वही कूटस्थ कहा जाता।
जो मिट्टी की निर्मितियों में मिट्टी सा सोने की निर्मितियों में सोने सा सूत की निर्मितियों में सूत सा समस्त सृष्टि में पूर्ण व व्यापक बना हुआ चैतन्य होता वही अनंत कहा जाता।
(11) इन कूटस्थ आदि उपाधि भेदों में निज स्वरूप के लाभ के लिए जो आत्मा समस्त शरीर में माला के धागे सा पिरोया जान पड़ता वही अन्तर्यामी कहलाता।
जो सुखमय चैतन्य स्वरूप है जो अपरिमित आनन्द समुद्र है जो शेष रहे सुख का स्वरूप है वही आनंद है।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 110
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