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________________ उनके भय दूर करने को दयादत्ति कहते हैं। महातपस्वी मुनियों के लिए सत्कारपूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्रदान कहते हैं। क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने समान है तथा संसार-समुद्र से पार कर देने वाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिए पृथ्वी, स्वर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्र के लिए समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ जो दान दिया जाता है वह समानदत्ति कहलाता है। अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुलपद्धति तथा धन के साथ अपना कुटुम्ब समर्पण करने को अन्वयदत्ति कहते हैं। सामूहिक तीर्थ यात्रायें तथा धार्मिक अनुष्ठान भी सामाजिक सम्बन्धों में प्रगाढ़ता के कारण बनते हैं। सागारधर्मामृत में लिखा है स्थूललक्षः क्रियास्तीर्थयात्राद्यादृग्विशुद्धये। कुर्यात्तथेष्टभोज्याद्याः प्रीत्या लोकानुवृत्तये ॥ 2/84 व्यवहार की प्रधानता देने वाले पाक्षिक श्रावक को सम्यग्दर्शनको निर्मल करने के लिए तीर्थयात्रा आदि क्रिया करनी चाहिए तथा लोगों के चित्त को अनुकूल करने के लिए प्रेमपूर्वक जीमनवार (भोज) करना चाहिए। समाज में दान देने से धार्मिक कार्यक्रमों द्वारा सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती है तथा पारस्परिक सहयोग की भावना का विकास होता है। सामाजिक कार्य पारस्परिक सहयोग के बिना संभव नहीं हो सकते। समाज में संघटन तथा संवेदनशीलता की भावना के कारण ही सुख-शान्ति का वातावरण बनता है। जिस समाज में धर्म और धार्मिक जनों के प्रति आदर का भाव होगा वहां पर भौतिक तथा आध्यात्मिक विकास का वातावरण स्वतः ही विकसित होगा। ___ इस प्रकार हम पाते हैं कि श्रावकाचार में वर्णित श्रावक चर्या विधान सामाजिक सन्तुलन में विशेष रूप से सहायक है। व्रतों के परिपालन से वैयक्तिक कल्याण के साथ समाज में विश्वास का वातावरण विकसित हो सकता है। आत्मानुशासन के उदय होने पर सामाजिक मान मर्यादाओं का परिपालन स्वतः ही लोगों में होने लगता है। आज दुर्व्यसनों के सेवन के कारण परिवारों में अशान्ति रहती है। यदि वे उनके दोषों को समझकर समीचीन मार्ग को स्वीकार करें तो उन परिवारों का जीवन सुख-शान्तिमय बन सकता है। वरिष्ठ प्राध्यापक जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं-341 306 (राजस्थान) तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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