________________
सकता है। व्यक्ति जो क्रियायें करता है वे मूलतः उनके स्वार्थ से प्रेरित होती है। उन क्रियाओं के हिताहित का निर्णय किन्हीं मापदण्ड के निश्चित होने पर ही संभव है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि सामाजिक पाप ही तो हैं। जितने ही अंश में व्यक्ति इनका परित्याग करेगा उतना ही वह सभ्य और समाज हितैषी बनता जायेगा और जितने अधिक व्यक्ति इन व्रतों का पालन करेंगे उतना ही समाज सुखी, शुद्ध और प्रगतिशील बनेगा। अतः इन व्रतों के विधान द्वारा जैन संस्कृति ने मानव के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के शोधन का प्रयत्न किया है, जो आध्यात्मिक विकास के लिए आधार है।
धर्म और समाज के लिए एक आवश्यक कार्य है साधर्मी भाइयों की मदद करना, उनके कष्टों को दूर करना और दूसरा आवश्यक कार्य है लोगों को धर्म में दीक्षित करना। आचार्य सोमदेव ने इन दोनों की ओर श्रावकों का ध्यान आकृष्ट किया है। उनका कहना है कि जो लोग सदाशय नहीं है उन्हें जैनधर्म की ओर लाने की प्रेरणा नहीं करनी चाहिए किन्तु जो स्वतः उस ओर आना चाहे तो उसके योग्य उसे सहायता करनी चाहिए। श्रावक के आवश्यक कार्यों में दान का विधान भी है। अमितगति श्रावकाचार में लिखा है- .
दानं, पूजा जिनैः शीलमुपवासश्चतुर्विधः।
श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्यपावः ।।9/1।
श्रावक को नित्य जिनेन्द्र की पूजा करनी चाहिए, गुरुओं की सेवा-उपासना करनी चाहिए, पात्रों को दान देना चाहिए तथा धर्म और यश बढ़ाने वाले कार्य लोक-रीति के अनुसार करने चाहिए।
आचार्य पद्मनन्दि ने गृहस्थाश्रम की पूज्यता बतलाते हुए लिखा है
आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिके प्रीतिरूच्चैः पात्रेभ्यः दानमापन्निहत जनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया। तत्वाभ्यासः स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं, तद् गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिहपुनर्दुःखदो मोहपाशः॥
पद्मनन्दि पंचविशतिका 1/33 जिस गृहस्थाश्रम में जिनेन्द्रों की पूजा की जाती है, निर्ग्रन्थ गुरुओं की विनय की जाती है, धार्मिक पुरुषों के प्रति अत्यंत प्रीति रहती है, पात्रों को दान दिया जाता है, जो विपत्ति से ग्रस्त जन होते हैं उनकी करुणाभाव से मदद की जाती है, तत्वों का अभ्यास किया जाता है, अपने व्रतों से अनुराग होता है, निर्मल सम्यग्दर्शन होता है वह गृहस्थाश्रम विद्वानों के द्वारा भी पूज्य होता है। इसके विपरीत गृहस्थाश्रम तो दुःखदायक मोहपाश है।
___जैन आचार शास्त्र में गृहस्थ के शिक्षाव्रतों में अतिथिसंविभागवत है जिसमें अतिथि को आहार, औषधि, शास्त्र का दान देना विहित है। आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण में दयादत्ति, समदत्ति, पात्रदत्ति और अन्वयदत्ति ये चार प्रकार की दत्ति कही है। अनुग्रह करने योग्य प्राणियों के समूह पर दयापूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि के साथ
50
aamwwwmomsome तुलसी प्रज्ञा अंक 110
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org