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सम्यक्त्वममलममलान्यणु-गुण शिक्षाव्रतानि मरणान्ते ।
सल्लेखना च विधिना पूर्ण. सागारधर्मोऽयम् ।। सागारधर्मामृत ।1 /12 शंका आदि दोषों से रहित सम्यग्दर्शन, निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत और मरण समय विधिपूर्वक संल्लेखना यह पूर्ण सागार धर्म है ।
व्रतों में अहिंसा को प्रधानता दी गयी है। जो गृहस्थ संतोषपूर्वक जीवन यापन करता है, सीमित आरम्भ और सीमित परिग्रह रखता है वही अहिंसक है और ऐसे अहिंसक सद्गृहस्थ ही अहिंसक समाज की रचना कर सकते हैं । शीलवान व्यक्ति ही जगत् में पूज्यता को प्राप्त करता है। आचार्य सोमदेव ने लिखा है
शीलवान् महतां मान्यो जगतामेक मण्डनम् । .
स सिद्धः सर्वशीलेषु यः सन्तोषमधिष्ठितः । उपासकाध्ययन 7/53 शीलवान अर्थात् पवित्र आचरण वाला श्रावक यति, इन्द्र आदि से भी आदरणीय और जगत् के लोगों का एक उत्कृष्ट भूषण होता है। जो सन्तोष अर्थात् धर्म को धारण करता है वह समस्त शीलों या सदाचारों में सिद्ध होता है।
व्रतों की महत्ता न केवल धार्मिक दृष्टि से ही है अपितु सामाजिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। हिंसा की भावना समाप्त होने से पारस्परिक मैत्री भाव की भावना बढ़ती है। सत्याणुव्रत के परिपालन से समाज में प्रामाणिकता का वातावरण बनता है | महाकवि रइधू ने लिखा है—
वाणी सच्चविहीणा सीलविहीणा य णारि साहरणा । धम्मविय णिक्करुणा एदे जाणि जिंदणिज्जाहि ॥ सच्च पहासी पुरिसो गरूवउ मेरुत्त्व वणिउ लोए ।
सव्वाणं विस्सासो उप्पज्जइ तासु वयणेण ॥ सिद्धान्तार्थसार 3 / 105-106
अर्थात् सत्यविहीन वाणी, शील रहित नारी और करुणा से रहित धर्म महापुरुषों द्वारा निन्दनीय माने गये हैं। सत्यवक्ता पुरुष संसार में मेरू के शिखर के समान गौरव प्राप्त करता है। उसकी वाणी में सभी जन विश्वास करते हैं।
अपरिग्रह व्रत के पालन से समाज में समता का वातावरण बनता है । आवश्यकता से अधिक बढ़ती हुई वस्तुओं के संग्रह की मनोवृत्ति के कारण सामाजिक असंतुलन की समस्या उत्पन्न हो गयी है। लोगों की आवश्यक आवश्यकतायें पूरी होनी चाहिए परन्तु विलासिता की प्रवृत्ति का नियमन भी अपेक्षित है ।
" जैनधर्म और जीवन मूल्य" में व्रतों की सामाजिक उपयोगिता के सन्दर्भ में डॉ. प्रेमसुमन जैन ने लिखा है-पांच अणुव्रतों के स्वरूप पर विचार करने से एक तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन व्रतों के द्वारा मनुष्य की उन वृत्तियों पर नियन्त्रण करने का प्रयत्न किया गया है जो समाज में मुख्य रूप से वैर-निरोध के जनक हैं। दूसरी यह बात ध्यातव्य है कि आचरण का परिष्कार सरलतम रीति से कुछ निषेधात्मक नियमों द्वारा ही किया जा
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
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