________________
व्यसनासक्त मनुष्यों के कौन से गुण नष्ट नहीं होते? धर्म, विद्वत्ता, मानवता, कुलीनता और सत्यवादिता सभी नष्ट हो जाते हैं। बुरे व्यसनी व्यक्ति के दोनों लोक दुःखदायी होते हैं।
"करकण्डचरिउ" में कवि ने व्यसनों को विष-वृक्ष की उपमा दी है। जैसे विषवृक्ष और उसके फल दूसरों के जीवन को समाप्त कर देते हैं, उसी तरह ये व्यसन व्यसनी व्यक्ति का जीवन तो बरबाद कर ही देते हैं उसके परिवार को भी संकटों में डाल देते हैं।
श्रावकाचारों का लक्ष्य सात्विक वृत्ति सम्पन्न समाज-निर्माण करना है। इस प्रकार के समाज निर्माण में आहार-संयम की महत्वपूर्ण भूमिका है। सागार धर्मामृत में लिखा है
तत्रादौ श्रद्धज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् ।
मद्यमांसमधून्यूज्झेत्पञ्च क्षीरिफलानि च ।। 2/2
गृहस्थ धर्म में सबसे पहले जिनागम की आज्ञा का श्रद्धान करते हुए हिंसा को छोड़ने के लिए देश संयम की ओर उन्मुख पाक्षिक श्रावक को मद्य, मांस, मधु, पांच क्षीरिफलों और मक्खन, रात्रि-भोजन तथा बिन छने जल आदि को छोड़ना चाहिए।
जैन परम्परा में आचरण की अपेक्षा से ही व्यक्ति को श्रेष्ठता प्रदान की है। सागारधर्मामृत में लिखा है कि आसन आदि उपकरण, मद्य आदि की विरति रूप आचार
और शरीर की शुद्धि से विशिष्ट शूद्र भी जिनधर्म के सुनने के योग्य होता है, क्योंकि वर्ण से हीन भी आत्मा योग्य काल, देश आदि की प्राप्ति होने पर श्रावक धर्म का आराधक होता है। जैनधर्म में गृहस्थ के लिए जो आचार-संहिता निर्धारित की गयी है उसमें नैतिकता का मुख्य स्थान है। गृहस्थ सामाजिक प्राणी है। वह समाज में जीता है। उसका व्यवहार समाज को प्रभावित करता है। वही समाज स्वस्थ कहला सकता है जिसमें सामाजिक मान-मर्यादाओं एवं व्रतों के परिपालन की परम्परा हो।
श्रावकाचारों में श्रावक के 12 व्रतों का वर्णन प्राप्त होता है। आचार्य पूज्यपाद ने व्रत को परिभाषित करते हुए लिखा-“व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः इदं कर्त्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति वा" अर्थात् अभिप्रायपूर्वक/ संकल्प पूर्वक किया गया नियम व्रत कहलाता है अथवा यह मेरे लिए कर्तव्य है, यह मेरे लिए अकर्तव्य है। इस प्रकार के विवेक को व्रत कहते हैं। आचार्य सोमदेव ने भी लिखा है
संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमो व्रतमुच्यते। प्रवृत्तिविनिवृत्ती वा सदसत्कर्म संभवे ।। उपासकाध्ययन 3/6
सेवनीय वस्तु का इरादापूर्वक त्याग करना व्रत है अथवा अच्छे कार्यों में प्रवृत्ति और बुरे कार्यों से निवृत्ति को व्रत कहते हैं।
पण्डित प्रवर आशाधर जी लिखते हैं
48
-25099993685
mom
तुलसी प्रज्ञा अंक 110
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org