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________________ at हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लौकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ उपासकाध्ययन 476 अर्थात् गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का है- एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । इनमें लौकिक धर्म लोक की रीति के अनुसार होता है और पारलौकिक धर्म आगम के अनुसार होता है । किस लौकिक विधि को अपनाया जाये, और किसको न अपनाया जाये इसके निर्णय के लिए सोमदेव ने यह कसौटी बतायी है— सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यकत्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ।। उपासकाध्ययन 480 सभी जैनधर्मानुयायियों को वह लौकिक व्यवहार मान्य है जिससे उनके सम्यक्त्व न आती हो और न उनके व्रतों में दूषण लगता हो । समाज में सुखमय वातावरण की निर्मिति में भावनाओं का विशेष महत्व है। आचार्य सोमदेव ने लिखा है— मैत्री प्रमोद कारुण्यमाध्यस्थानि यथाक्रमम् । सत्वे गुणाधिके क्लिष्टे निर्गुणेऽपि च भावयेत् ॥ उपासकाध्ययन 334 सब जीवों में मैत्रीभाव रखना चाहिए। जो गुणों में श्रेष्ठ हों उनमें प्रमोद भाव रखना चाहिए। दुःखी जीवों के प्रति करुणाभाव रखना चाहिए और जो निर्गुण हों, असभ्य और उद्धत हों उनके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए। व्यसन मुक्त सामाजिक संरचना में श्रावकाचारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। व्यसन शब्द “वि” उपसर्ग पूर्वक "अस्' धातु से बना है जिसका अर्थ होता है भ्रष्ट करना या गिराना । वसुनन्दि श्रावकाचार में सप्त व्यसनों के सम्बन्ध में लिखा है— जूयं मज्ज मंसं वेसा पारद्धि चोर-परयारं । दुग्गइगमणस्सेदाणि उभूदाणि पावाणि ।। 59 ॥ जूआ, शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी और परदार सेवन ये सातों व्यसन दुर्गति - गमन के कारणभूत हैं। इन दुर्व्यसनों का त्याग गृहस्थ धर्म की साधना का प्रथम चरण है। उनके त्याग को गृहस्थ- आचार के प्राथमिक नियम या मूलगुणों के रूप में स्वीकार किया गया है। महाकवि रइधू ने समस्त व्यसनों का मूल द्यूत-व्यसन को बतलाया है तथा उन्होंने लिखा है सव्वाण वसणाणं मूलं जूवं हि कलह दुहगेहं । इह परलोयविरुद्ध तं चयणिज्जं कया कज्जं ॥ सिद्धान्तार्थसार 3 / 25 अर्थात् सहस्त्रों आपत्तियों का निवास जुएं में ही रहता है। धनं, धर्म, यश एवं मान-प्रतिष्ठा आदि सभी का विनाश द्यूत-व्यसन द्वारा हो जाता है। आचार्य वादीभसिंह ने भी लिखा है व्यसनासक्तचित्तानां गुणः को वा न नश्यति । न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं न सत्यवाक् ॥ क्षत्रचूड़ामणि तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 ww Jain Education International For Private & Personal Use Only 47 www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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