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________________ धर्म शब्द भारतीय संस्कृति में नैतिक आचार और र्त्तव्य के साथ ही वैयक्तिक आत्म गुण तथा धार्मिक पुण्य के लिए व्यवहृत हुआ है। नैतिक कर्तव्यों के रूप में धर्म का वर्गीकरण करते समय मुख्यतः तीन बातें लक्ष्य में रखी गयी हैं। 1. वैयक्तिक आत्मिक परिष्कार या उन्नयन 2. समाज के साथ सम्बन्ध 3. पारमार्थिक कल्याण। दूसरे शब्दों में नैतिक कर्त्तव्यों के विधान में वैयक्तिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ उसके सामाजिक पर्यावरण का भी ध्यान रखा गया है। वस्तुतः सदाचार या दुराचार का निर्णय केवल एक ही आधार पर नहीं होता है। उसमें आचरण का प्रेरक आन्तरिक पक्ष अर्थात् उसकी मनोदशा और आचरण का बाह्य परिणाम अर्थात् सामाजिक जीवन पर उसका प्रभाव दोनों ही विचारणीय हैं। मोक्षमार्ग आध्यात्मिक दृष्टि से "व्यक्तित्व" के उत्थान की एक प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया में साधक का स्वतः लौकिक दृष्टि से भी अभ्युदय होता है। इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति में सामान्यतः अभ्युदय एवं निःश्रेयस् के साधक आचार-विचार को "धर्म" माना गया है। धर्म व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में अग्रसर करता हुआ उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करता है, साथ ही साथ अधःपतन से भी रोकता है-यही उसकी द्विमुखी धारण प्रकृति है। आचार्य समन्तभद्र ने धर्म का उद्देश्य संसारी दुःखी प्राणी को उत्तम सुख में पहुंचाना माना है। उत्तम सुख मोक्ष की प्राप्ति में है। जैन आचार का चिन्तन अध्यात्म की भूमि पर और उसका व्यवहार समाज के धरातल पर होता है। जैनधर्म के बारे में समाज में यह भ्रान्त धारणा है कि इसमें सामाजिक जीवन के चिन्तन की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है, इसमें यथार्थता नहीं है। यथासमय आचार्यों ने अपनी चिन्तनदृष्टि से सामाजिक विषमता के निवारण में तथा मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठापना में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। __ श्रावकाचार वस्तुतः सर्वोदय का ही पर्यायवाची है। सर्वोदय का आधार समता है। जैनधर्म में सामाजिक वैषम्य की किसी रूप में भी स्वीकृति नहीं है। जैन संस्कृति सामाजिक न्याय, मैत्री और समता पर बल देकर बंधुता की स्थापना करती है। भगवान महावीर ने जैन संस्कृति की पुनः स्थापना करते हुए इन सभी जीवन मूल्यों को समाज के लिए अनिवार्य माना है। मनुष्य के संस्कार संवर्धन के लिए उदात्त गुणों का ग्रहण जिस समाज में होगा, वह स्वयमेव सुसंस्कृत हो जायेगा। श्री बी.एस. सन्याल के अनुसार समाज उन दो या दो से अधिक मनुष्यों के समूह का नाम है जिसमें जन-कल्याण की भावना से मानव व्यवहारों का आदान-प्रदान होता है। __ आचार्य सोमदेव संसारी गृहस्थों की समाज पर दृष्टि रखे हुए हैं। वह कहते हैं, "जिन भगवान का यह धर्म अनेक प्रकार के मनुष्यों से भरा है। जैसे मकान एक स्तम्भ पर नहीं ठहर सकता वैसे ही यह धर्म भी एक पुरुष के आश्रय से ही नहीं ठहर सकता। गृहस्थों के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा 46 . तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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