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आचार-मीमांसा
"श्रावकाचार की सामाजिक उपयोगिता"
-डॉ. अशोक कुमार जैन
जैन-धर्म भारत के प्राचीन धर्मों में प्रमुख धर्म है। जैनधर्म में निर्वृत्ति की प्रधानता है। उसका परम साध्य मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार है। मोक्ष की प्राप्ति सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की समन्विति में है। इनका मूर्तमान रूप श्रमण अवस्था में ही संभव है परन्तु प्रत्येक के लिए श्रमण धर्म का परिपालन संभव नहीं है, अतः जैनधर्म में गृहस्थ धर्म या सागार धर्म का भी अनेक ग्रन्थों में वर्णन किया गया है। गृहस्थ व्रती को उपासक, श्रावक, देशसंयमी, आगारी आदि नामों से अभिहित किया गया है। जैनधर्म सम्मत समाज व्यवस्था आत्मानुशासन पर केन्द्रित है। अनुशासन के सम्बन्ध में आचारांग वृत्ति में लिखा है। "अनुशास्यन्ते-सन्मार्गेऽवतार्यन्ते सदसद्विवेकतः प्राणिनो येन तदनुशासनम्" अर्थात् अपने सद्-असद् विवेक से प्राणियों को सन्मार्ग में अवतरित करने के उपाय को अनुशासन कहते हैं। "श्रावक धर्म प्रदीप" में श्रावक पद का अर्थ बताते हुए लिखा हैअभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः । सकाशात्साधूनामागारिणां च सामाचारी श्रृणोतीति श्रावकः ।।2।। जो सम्यक्त्वी और अणुव्रती होने पर भी प्रतिदिन साधुओं से गृहस्थ और मुनियों के आचार धर्म को सुने, वह श्रावक कहलाता है। उपलब्ध जैन वाङ्मय में श्रावक धर्म का वर्णन तीन प्रकार से प्राप्त होता है1. ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर 2. बारह व्रत और मारणान्तिकी सल्लेखना का उपदेश देकर 3. पक्ष, चर्या और साधन का प्रतिपादन कर
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
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