SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यद्यपि यह सच है कि ऋषभ राज्य में इन समस्याओं पर विचार करने का अवकाश ही नहीं है। ऋषभ राज्य इन समस्याओं से मुक्त था लेकिन ऋषभायण के लेखन युग में इन पर विमर्श करना अनिवार्य हो गया है। कवि की भी अपनी सीमा है, इसको जानते हुये भी मन कह रहा है कि यदि इस प्रज्ञावान महाकवि के प्रज्ञाबल से अहिंसात्मक समाधानों का निर्झर निःसृत होता तो एक नयी दिशा आज के दिग्मूढ़ युग को प्राप्त होती। ऋषभायण के महाकवि ने भारतीय संस्कृति, दर्शन और अध्यात्म-चेतना का सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी चित्रण इस ग्रन्थ में किया है। राज्य-व्यवस्था से संदर्भित पद्यों को पढ़कर ऐसा आभास होने लगा, यदि आज का शासक वर्ग 'ऋषभायण' में ऋषभमुख से भरत के लिए निःसृत शिक्षापदों का अपने जीवन व्यवहार में उपयोग करे तो भारत अपने प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त करने में सक्षम हो सकेगा। ऋषभायण के कर्ता स्वयं एक सफल शासक हैं। भले वे एक धर्मसंघ के शासन का संचालन कर रहे हो किन्तु जहां भी मनुष्यों का समूह होता है, उसमें अपनी मौलिक मनोवृत्तियां विद्यमान होती हैं। शास्ता को उन सब बातों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अनुचिन्तन करके व्यवस्था का समायोजन करना होता है। ऋषभायण में प्रदत्त सम्यक् शासन-व्यवस्था के सूत्र कवि की लेखनी से निकले कोरे शब्द नहीं हैं किन्तु उनका यह अनुभव-प्रणीत जीवन-दर्शन है। दर्शन की इस सच्चाई को वे अपने जीवन में व्यवहार्य बना रहे हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि ऋषभायण में प्रदत्त राज्य-व्यवस्था कोरी Philosophy नहीं है अपितु applied philosophy है। संदर्भ : 1. ऋषभायण पृ. 6 2. राजनीतिशास्त्र Thestateisaunionoffamiliesand villageshaving for itsendperfect and self sufficing life.(Aristotle) 3. राजनीतिशास्त्र 4. वही Thestateiscommunityoflpersons more or less numerous,permananetly occulpying a difinite portion of territory, independent or nearly so of external control and possessing an organised Government to which the greatbody of inhabitants render habitual obedi ence.(Garner) 5. ऋषभायण, पृष्ठ 88 6. मनुस्मृति 7/ 7. ऋषभायण, पृ. 74 8. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरितम् 2/974-976 तदोग्र-भोग-राजन्य-क्षत्रभेदैश्चतुर्विधान् । जनानासूत्रयद् विश्वस्थितिनाटकसूत्रभृत ।। आरक्षपुरुषा उग्रा, उग्रदण्डाधिकारिणः । भोगा मन्त्र्यादयो भर्तुत्रायस्त्रिंशा हरेरिव ।। राजन्या जज्ञिरे ते ये, समानवयसः प्रभोः । अवशेषास्तु पुरुषा बभूवुः क्षत्रिया इति॥ 38 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy