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राज्य राजाओं की पारिवारिक समस्या नहीं है, अतः राज्य-संचालन में उन्हें राष्ट्र के व्यवहार-कुशल, दूरदर्शी विशिष्ट पुरुषों की सहायता लेनी ही चाहिये। 'सहायसाध्यत्वं राज्यत्वम्' राज्य-संस्था व्यक्तिगत संस्था भी नहीं है। इसमें सहायकों की सहायता की अनिवार्य अपेक्षा होती है। चाणक्य ने तो यहां तक कह दिया है कि मंत्री परिषद् की बौद्धिक सहायता से रहित अकेला राजा अपने सीमित अनुभवों से जटिल कर्तव्यों के विषय में सुदूरव्यापी उचित निर्णय ही नहीं कर सकता-ना सहायस्य मन्त्रनिश्चयः ।
नीतिवाक्यामृत में राजा को अनेक सहयोगी रखने का परामर्श दिया गया है। जिस राजा के अधिक सहयोगी होते हैं उसके सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं-बहुसहाये राज्ञि प्रसीदन्ति सर्व एव मनोरथाः।23
___ अकेला व्यक्ति व्यवस्था का सम्यक् संचालक नहीं कर सकता। व्यवस्था के अभाव में राज्य विखण्डित हो जाता है। मंत्री विहीन राजा एक शाखा वाले वृक्ष के सदृश है जिसकी छाया नहीं हो सकती-किमेकशाखस्य शाखिनो महती भवतिच्छाया। सहयोगी की योग्यता : .
नेता को अपने सहयोगी मन्त्रियों के चुनाव में सतर्क रहना चाहिये। उसके सहयोगियों का चरित्र-बल उत्कृष्ट होना चाहिये। अर्थ की प्रबल आसक्ति वाले मंत्री समाधान की अपेक्षा स्वयं समस्या बन जाते हैं। जनता का भला करने की आड़ में अपने स्वार्थ साधन में तत्पर होकर जनता के लिए अभिशाप बन जाते हैं, अतः सचिव को अर्थलुब्ध नहीं होना चाहिये। ऋषभायण में भी यही स्वर सुनाई दे रहा है
“अर्थलब्ध यदि सचिव है, पद-पद प्रथित अनर्थ । शासक ही शोषक तदा, जल सिंचन है व्यर्थ।।"25
कुलीन, सदाचारी, व्यसनमुक्त, स्वदेशप्रेमी इत्यादि गुणों से अभिमण्डित मंत्री को प्राप्त कर राजा राज्य का सम्यक् संचालन कर सकता है। मंत्री यदि व्यसनमुक्त नहीं है तो वह राजा को भी नष्ट कर देता है
"सव्यसनसचिवो राजा आरूढ़व्यालगज इव नासुलभोऽपायः॥"26
चाणक्यसूत्र में निर्देश दिया गया है कि तर्कशास्त्र, दण्डनीति, वार्ता आदि विद्याओं में पारंगत तथा गुप्त रूप से ली हुई लोभ परीक्षाओं से शुद्ध प्रमाणित व्यक्ति को ही मंत्री नियुक्त किया जाए।
"श्रुतवन्तमुपधाशुद्ध मन्त्रिणं कुर्यात् ।" 27
राज-सहयोगी निर्धारण के ऐसे अनेक सूत्र प्राचीन शास्त्रों में उपलब्ध हैं। ऋषभायण में भी उन सूत्रों के साथ ही नवीन अवधारणाओं की अनुगुञ्ज श्रुतिलभ्य है।
ऋषभायण में राजनीति के अनेक मुद्दों पर विमर्श हुआ है किन्तु विदेश-नीति, शस्त्र-निर्माण, परीक्षण, अर्थ की समायोजना आदि विषयों पर चिन्तन अनुपलब्ध है।
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
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