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व्यवस्था में अनेकान्त दृष्टि की अनुपालना होने से समस्याएं समाहित हो जाती हैं, यह उनका दृढ़ अभिमत है।
केवल निग्रहनीति से बढ़ता जन आक्रोश, सिर्फ अनुग्रह नीति से खो देता नर होश । निग्रह और अनुग्रहयुक्त, शासन विपदा पद से मुक्त । दोनों का समुचित व्यवहार, मनुज प्रकृति का वर उपचार।
अधिकार शोषण के स्थल न बने। वे पोषण के हाथ पुष्ट करे, यह काम्य है। वह व्यक्ति महान होता है जो दूसरों के पोषण के लिए अपनी शक्ति का नियोजन करता है। जो अपने पोषण के लिए दूसरों का शोषण करता है, वह व्यक्ति जुगुप्सा का पात्र बनता है। शासन-संचालन व्यवस्था शोषण से नहीं अपितु पोषण से सुदृढ़ बनती है। इस तथ्य को महाकवि ने कितनी सुन्दर प्रस्तुति दी है
अमरबेल ने आरोहण कर किया वृक्ष का शोष, वह कैसा प्राणी जो करता पर शोषण निज पोष । कितना हाय जुगुप्सितकर्म लज्जित हो जाती है शर्म ॥18
आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने अतीत के झरोखे से वर्तमान का जीवन-दर्शन दिया है। सत्ता प्राप्त कर व्यक्ति अपने कर्तव्य से विमुख हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को ऋषभायण के महाकवि ने दायित्व-बोध का अनुभवप्रणीत उद्घोष दिया है। वही शासक और शासन सफल हो सकता है, जो जनता की दुःख-दुविधा को मिटाने में सतत जागरूक एवं क्रियाशील बना रहता है। जो शासक दुःख-दुविधा से पीड़ित जनता के हित की चेष्टा नहीं करता, उसका शासन रुग्ण, अप्रीतिकर एवं असहनीय बन जाता है। जन आक्रोश उभर जाता है। जनता ऐसे शासन से मुक्ति पाने का प्रयत्न करती है, अतः यह आवश्यक है कि नेतृवर्ग शासन-संचालन का कार्य संवेदन की चादर ओढ़कर करे
जनता की दुविधा मिटे, शासन का है ध्येय। दुविधा की यदि वृद्धि हो, वह आमयकर पेय ॥ चरण-चरण के साथ चले, मन में प्रतिपद संवेदन हो।
जनतापी पीड़ा से विगलित रोम-रोम में स्वेदन हो।" राज्य-संचालन के सहयोगी
राज्य संचालन का मुख्य दायित्व राजा पर अथवा आज की भाषा में प्रधानमंत्री पर होता है किन्तु अकेला व्यक्ति शासन-संचालन नहीं कर सकता। उसे सहयोगियों की अपेक्षा होती है। प्राचीनकाल से ही यह सर्व सम्मत अवधारणा है कि राजा के सहयोगी निपुण मंत्री होने चाहिये। एक चक्र से राज्य-व्यवस्था का रथ गतिशील नहीं हो सकता
नैकं चक्रं परिभ्रमयति ऋषभायण में भी यह सत्य उजागर हुआ हैएक चक्र बल से नहीं चल सकता है यान । होता है साचिव्य से शासन रथ गतिमान ।।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 110
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