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मामले में शुचि (पवित्र) होता है। धन को लेकर कोई भी व्यक्ति जिस पर अंगुलि निर्देश न कर सके वही श्रेष्ठ नेता होता है । राजा को करुणाशील भी होना चाहिये । करुणा के धागे से बंधा शासन व्यवस्थित रहता है। करुणा के अभाव में वह छिन्न-भिन्न हो जाता
क्रूर नृपति शासन सूत्र, मातृस्नेह से विरहित पुत्र
शासन सह संवेदन पूत, शांतिदूत बनता साकूत ।
महाकवि भारवि प्रणीत ‘किरातार्जुनीयम्' महाकाव्य के प्रथम सर्ग में भी राजा की अर्हताओं का उल्लेख हुआ है । वनेचर दुर्योधन के राज्य में जाकर उसके आचारव्यवहार का निरीक्षण करता है एवं वहां से आकर सारी स्थिति की अवगति धर्मराज युधिष्ठिर को देता है । उस वर्णन में राजा की योग्यताओं की अभिव्यक्ति हो रही है । जिनको हम निम्न वर्गीकरण से जान सकते हैं। श्रेष्ठ राजा वह होता है—
1. जो अपनी काम-क्रोध आदि वृत्तियों पर नियन्त्रण रखता है।
2. जो आलस्यमुक्त होता है ।
3. जो नीति का आलम्बन लेकर चलता है।
4. जो पुरुषार्थी होता है।
5. जो अपने सहयोगियों के साथ मित्रवत् आचरण करता हुआ उनका आदर करता
है ।
6. जो पक्षपात रहित होता है।
7. जो साम, दाम, दण्ड एवं भेद इन चारों नीतियों का ज्ञाता एवं प्रयोक्ता होता है। 8. जो दानशील होता है।
जो योग्य व्यक्तियों का सत्कार करता है।
9.
10. जो धार्मिक होता है" ।
राजा ऋषभ के प्रशासनिक जीवन में ये विशेषताएं स्वभाव से ही सिद्ध हैं ।
राज्य - व्यवस्था संचालन के सूत्र
व्यवस्था के निर्माण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि उसका संचालन कैसे किया जाए? कुशल संचालक के अभाव में सुघटित व्यवस्था भी राज्य को स्वस्थता प्रदान नहीं कर सकती। संचालन कौशल से ही व्यवस्था प्राणवान बन सकती है । ऋषभ जब संन्यास के मार्ग पर आरूढ़ होने का संकल्प ले लेते हैं तब वे अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक करते हैं एवं भरत को राजनीति का उपदेश देते हैं । वह उपदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है । ऋषभायण के महाकवि प्राचीन अर्वाचीन शासन संचालन की विधियों का वर्णन ऋषभमुख से करवाते हैं ।
शासन संचालन में अनुग्रह एवं निग्रह का संतुलन आवश्यक है। एकांगी व्यवहार समस्या का सर्जक होता है । ऋषभायण के महाकवि अनेकान्तदृष्टि के संपोषक हैं। शासन
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर - दिसम्बर, 2000
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