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की साधना में निरत रहता है। जनता के हित की चिन्ता न करने वाला नेता केवल शासन का भार ढोता है। उसे जनता से सम्मान नहीं मिलता। जो अधिकार मिलता है, वह भी अन्ततः धिक्कार में बदल जाता है। ऋषभायण की इन पंक्तियों में यही भाव प्रस्फुटित हुये
जनहित साधन में न निरत है, केवल ढोता पद का भार । वह क्या राजा, वह क्या नेता? उससे पीड़ित है संसार ॥ जनता से अधिकार प्राप्त कर नहीं कभी करता उपकार। प्रथम वर्ण का लोप हो गया और हो गया द्वित्व ककार ॥
ऋषभ ने अपने दायित्व का निर्वाह संवेदन की भूमिका पर स्थित होकर किया। पर में घटित घटना को स्व में घटित अनुभूत कर उसका समाधान देने का प्रयत्न किया। जब नेता के दिल में करुणा का स्रोत प्रवाहित रहता है तब उसके अधीनस्थ उसे अपना समझते है। यह ऐक्य की अनुभूति ही शासन-व्यवस्था का सम्यक् संचालन कर सकती है। ऋषभ-राज्य में इस ऐक्य-भाव की प्रगाढ़ अनुभूति विद्यमान थी। राजा (नेता) की अर्हता
सामान्य जनता अपने शासक का अनुसरण करती है। इसलिए कहा गया'यथा राजा तथा प्रजा'। ऐसी स्थिति में नेता पर अत्यधिक जिम्मेदारी आ जाती है। वह सामान्य जनता का आदर्श बनता है, अतः उसमें चारित्रिक उच्चता की अत्यन्त अपेक्षा होती है। सत्ता और प्रशासन से सम्बन्धित व्यक्तियों की योग्यता की दो कसौटियां हो सकती हैं-चरित्रबल और बौद्धिक क्षमता। इसमें भी प्रमुख चरित्रबल है। यदि उसका चारित्रिक पक्ष उजला नहीं है तो उसमें सत्ता के शीर्ष पर आरूढ़ होने की योग्यता ही नहीं है। “अहिंसा में आस्था, अर्थ का संयम, अपने आवेशों पर नियन्त्रण करने की क्षमता, सामाजिक न्याय के प्रति हार्दिक समर्पण, समन्वय और सापेक्षता का दृष्टिकोण, बौद्धिक और मानसिक संतुलन-ये राजनेता के चारित्र के मुख्य तत्त्व हैं।"12
- ऋषभायण में राजा की अर्हता का सांगोपांग विवेचन हआ है। शासक को इन्द्रियजयी होना चाहिये। इन्द्रियजय ही राज्य का मूल है—राज्यमूलमिन्द्रयजयः। चाणक्य के इस सूत्र की आज के पदार्थवादी और सुविधावादी युग में अत्यन्त अपेक्षा है। अजितेन्द्रिय राजा राज्य में समुचित व्यवस्था नहीं कर सकता। ऋषभायण का महाकवि भी शासक की जितेन्द्रियता का प्रबल पक्षधर है। जितेन्द्रियता के अभाव में शासनव्यवस्था ही समाप्त हो जाती है
अजितेन्द्रिय शासक विफल, अंकहीन ज्यों शून्य । संयत शासक प्राप्तकर, होती धरा प्रपुण्य ।
अर्थ के प्रति सम्यक् दृष्टिकोण रखने वाला राजा ही राज्य का सम्यक् निर्वाह कर सकता है। मनु ने ठीक ही कहा था-अर्थशुचिःशुचिः। पवित्र वह होता है जो अर्थ
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तुलसी प्रज्ञा अंक 110
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