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________________ - चार भागों में विभक्त किया -- उग्र, भोज, राजन्य एवं क्षत्रिय । जिन पर सुरक्षा का दायित्व था वे उग्र कहलाये। जिनके साथ राज्य संचालन के लिए मंत्रणा की जाती थी उनकी अभिधा भोज हुयी । ऋषभ के समवयस्क, जो उनके सखा थे उनको राजन्य कहा गया तथा अवशिष्ट सभी क्षत्रिय कहलाये । इस व्यवस्था का उल्लेख 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्य' एवं 'ऋषभायण' इन दोनों ही ग्रंथों में उपलब्ध है । आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ऋषभ के द्वारा कृत वर्ण-व्यवस्था का उल्लेख करते हैं । किन्तु आचार्य हेमचन्द्र एवं आचार्य महाप्रज्ञ वर्ण-व्यवस्था के संदर्भ में मौन है। यह स्पष्ट है कि कवि की काव्य-रचना पर तात्कालिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। संभवतः आदि पुराण के कर्ता के समय वर्ण-व्यवस्था सुदृढ़ थी तथा वे उसको मान्य भी कर रहे होंगे, अतः उन्होंने इस व्यवस्था का उल्लेख अपने ग्रन्थ में किया हो किन्तु आचार्य हेमचन्द्र तात्कालिक परिस्थितियों से कैसे अप्रभावित रहे, यह अन्वेषणीय है। संभव है आदिपुराण के कर्ता के समक्ष अपने ग्रन्थ के प्राथमिक स्रोतों में यह तथ्य उपलब्ध थे तथा हेमचन्द्र के सामने इस उल्लेख वाले प्राचीन-स्रोत उपलब्ध न हो अथवा यह भी हो सकता उपलब्ध होते हुये भी उन्होंने अपने ग्रन्थ में स्थान देना उचित न समझा हो। दोनों ही लेखकों की भिन्न परम्परा भी वर्ण-व्यवस्था की स्वीकृति - अस्वीकृति में शायद कारणभूत बनी हो । आचार्य महाप्रज्ञजी के सामने जो स्रोतभूत सामग्री उपलब्ध थी उसमें दोनों ही तरह के विचार उपलब्ध थे किन्तु उन्होंने समीक्षापूर्वक वर्ण-व्यवस्था का उल्लेख अपने महाकाव्य में नहीं किया । जो वार्तमानिक परिस्थिति के अनुकूल ही है तथा उनके स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार मुख प्रस्तुति भी है। ऋषभ - राज्य में अर्थव्यवस्था : भगवान् ऋषभ से पूर्व का युग भोगभूमि था । ऋषभ के अवतरण के साथ ही युग कर्म से कर्मभूमि की ओर गतिशील होने लगा । जीवन निर्वाह के लिए शिल्प - कर्म की आवश्यकता हुई। राजा ऋषभ ने अपनी जनता को शिल्प एवं कर्म का प्रशिक्षण दिया, जिससे वे अपनी आजीविका को प्राप्त कर सके । सब कुछ नया था। मिट्टी के पात्र निर्माण से लेकर लोह - शिल्प, बढ़ई-शिल्प आदि का प्रशिक्षण स्वयं ऋषभ ने जनता को दिया । वस्त्र - - निर्माण, नख-केश संस्कार का ज्ञान भी उस समय के व्यक्तियों को नहीं था । उसका भी बोध ऋषभ ने जनता को दिया । उस समय कुम्हार, बढ़ई, चित्रकार, जुलाहा एवं नापित यह पांच प्रकार का शिल्प जनता में फैला। इनमें से प्रत्येक के बीस-बीस भेद थे अतः शिल्प सौ प्रकार का हो गया । ऋषभ ने घसियारा, लकड़हारा, किसान और वणिक कार्य की शिक्षा भी आजीविका के लिए जनता को दी। वे हर तरह से अपनेआपको जनता के हित-साधन में नियोजित किये हुये थे । ऋषभ उस युग की अपरिहार्य आवश्यकता थे। जनता का सुख-दुःख ही उनका अपना सुख - दुःख था । जनता के हित चिन्तन में उन्होंने अपने आपको समर्पित कर दिया था। वह नेता और राजा ही जनप्रिय होता है जो प्रजा के दिल को जीत सकता है। जो आजीविका के उपाय सुझाता है। जनहित तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 Jain Education International For Private & Personal Use Only 33 www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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