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व्यवस्था संचालित करता है किन्तु स्पष्ट विधियां या लिखित अनुशासन ही आधुनिक राज्य के मुख्य साधन हैं। हिंसा का प्रश्न समाज और राज्य को पूर्णतः पृथक् कर देता है। सामाजिक संस्थाएं आर्थिक दण्ड दे सकती हैं, प्रायश्चित्त करा सकती हैं, यदि कोई मनुष्य उसकी व्यवस्था को न माने तो वह उसे समाज से बहिष्कृत भी कर सकती है, किन्तु वह उसे कैद नहीं कर सकती, शारीरिक दण्ड नहीं दे सकती। राज्य को विधि सम्मत दण्ड देने का पूर्ण अधिकार है। सामाजिक दण्ड व्यक्ति स्वेच्छा से स्वीकार करता है किन्तु राजकीय दण्ड तो व्यक्ति को अनिवार्यतः भोगना ही पड़ता है। राज्य व्यवस्था का दण्ड अनिवार्य तत्त्व है, अतः राजनीति को दण्डनीति भी कहा जाता है। दण्डभय से ही अधिकांश व्यक्ति सद्मार्ग का अनुगमन करते हैं। मनु ने कहा भी है
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः। दण्डस्य हि भयात्सर्वं जगद् भोगाय कल्पते ॥
ऋषभ-राज्य से पूर्व की कुलकर व्यवस्था को समाज व्यवस्था कहा जा सकता है, क्योंकि वहां पर दण्ड का स्वीकार स्वेच्छापूर्वक था किन्तु ऋषभ राज्य में दण्ड की अनिवार्य व्यवस्था थी। ऋषभराज्य और दण्ड
ऋषभ-राज्य में अधिकांश जनता स्वभावतः ही अनुशासित थी। निज पर शासन का घोष उनके जीवन में स्वतः अवतरित था। नियम की अनुपालना उनके जीवन में प्राकृतिक रूप से ही अवस्थित थी। नियम का उल्लंघन करना वैकृतिक/अस्वाभाविक था फिर भी जहां भी व्यवस्था का भंग होता था वहां विभिन्न प्रकार के दण्डों का विधान था। वाचिक एवं कायिक दोनों ही प्रकार के दण्ड अपराधी को उसके अपराध के अनुसार दिये जाते थे। किसी अपराधी को कड़े शब्दों में कहा जाता-'यहीं बैठ जाओ' यह दण्ड भी उसके लिए मरण-तुल्य होता था किन्तु जैसे-जैसे लज्जा का अपकर्ष होता है, वैसे ही व्यवस्था का अतिक्रमण तेजी से होने लगता है। लज्जाहीन व्यक्ति नियम को तोड़ते हुये सकुचाता नहीं है, वैसी स्थिति में दण्ड भी कठोर होने लगते हैं। ऐसा ही ऋषभ-राज्य में हुआ। वाचिक दण्ड से कायिक दण्ड की ओर राज्य-व्यवस्था बढ़ने लगी। मंडली-बंध, घर में नजर बन्ध आदि विभिन्न प्रकार के दण्ड प्रयोग में आने लगे। उससे आगे देह-पीड़क दण्ड का प्रयोग भी होने लगा। किन्तु ऋषभ राज्य के अधिकांश नागरिक स्वयं सम्बुद्ध एवं अनुशासित थे, अतः अतिक्रमण कम होते थे, इसलिए दण्ड भी सीमित ही थे। ऋषभायण में यह तथ्य इस रूप में मुखर हुआ है
सीमित शासन, अल्प अतिक्रम, अल्प दण्ड, तनुतर विक्षेप।
ऋषभराज्य की यह महिमा है, नहीं कहीं कोई आक्षेप ॥' राज्य में सुरक्षा व्यवस्था : - राज्य के सम्यक् संचालन के लिए सुरक्षा व्यवस्था आवश्यक होती है। ऋषभ ने अपने राज्य में सुरक्षा के समुचित उपाय किये। उन्होंने अपने राज्य की सम्पूर्ण जनता को
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तुलसी प्रज्ञा अंक 110
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