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________________ गार्नर ने राज्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुये कहा - "राज्य मनुष्यों के उस समुदाय का नाम है जो संख्या में चाहे अधिक हो या न्यून पर जो किसी निश्चित भूभाग पर स्थायी रूप से बसा हुआ हो, जो किसी भी बाह्य शक्ति के नियन्त्रण से पूर्णतया एवं प्रायः स्वतन्त्र हो और जिसमें एक ऐसी सुसंगठित सरकार विद्यमान हो, जिसके आदेश का पालन करने के लिए उस भूखण्ड के प्रायः सभी निवासी अभ्यस्त हों " " । ऋषभ - राज्य को जब उपर्युक्त परिभाषाओं के संदर्भ में देखते हैं तो परिलक्षित होता है कि उसमें राज्य की ये सभी विशेषताएं विद्यमान थीं। सबके हित साधन के लिए ही ऋषभ - राज्य का प्रादुर्भाव हुआ था । जनता, पृथ्वी का स्वतन्त्र भूभाग, पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समुदाय एवं व्यवस्था संचालन के लिए अपनी सरकार — राज्य के ये सभी आवश्यक तत्त्व ऋषभ राज्य में उपस्थित थे । राज्य का उद्भव राज्य स्वाभाविक नहीं है किन्तु आवश्यकता के कारण उद्भूत यथार्थ है । जब समूह में संक्लेश पैदा होता है तब राज्य-व्यवस्था का प्रादुर्भाव होता है। समूह को संगठित करने के लिए और उसके व्यवस्था मूलक प्रश्नों के समाधान के लिए ही राज्य सत्ता का आविर्भाव होता है। केवल जीवन-यापन करना ही मानव का लक्ष्य नहीं है; वरन शांति, आनन्द और संस्कृति का उपभोग करना भी उसका उद्देश्य है। राज्य इस लक्ष्य को पूर्ण करने का साधन है। मनुष्य की संरक्षणात्मक समस्याओं का समाधान करने के लिए ही राज्य सत्ता उद्भूत होती है । ऋषभ की राज्य-व्यवस्था के प्रादुर्भाव का मूल कारण यौगलिक जीवन में उत्पन्न पदार्थ वितरण का असामञ्जस्य ही था । उस समय प्रबल दुर्बल पर हावी हो रहा था । न्याय-अन्याय शक्तिशाली के विचारों का अनुसरण कर रहे थे। राज्य का एक उद्देश्य यह भी है कि सबको न्याय मिले। इसी अवधारणा के साथ ऋषभ - राज्य का उदय होता है— दुर्बल के प्रति प्रबल नर कर न सके अन्याय, शासन की यह सफलता न बने वह व्यवसाय' । उस युग में विषमता की आंधी शान्त - प्रशान्त यौगलिकों के जीवन को तहसनहस करने लगी। हाकार, माकार एवं धिक्कार नीति जब पौरुषहीन होने लगी तब पुरुषार्थी ऋषभ - राज्य का जन्म हुआ । समाज और राज्य समाज का आधार है— मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियों का समूहीकरण । यह प्रक्रिया मानव को इच्छापूर्वक सत्कर्म में नियोजित करने में व्यक्त होती है किन्तु राज्य अन्ततोगत्वा दण्डशक्ति का आश्रय लेता है। यद्यपि राज्य भी प्रथम आज्ञा, निर्देश, विज्ञप्ति, सूचना, उपदेश से काम लेता है; किन्तु अपनी आज्ञा का उल्लंघन होने पर वह नियंत्रणशक्ति का प्रयोग भी करता है । समाज परम्परा प्राप्त धर्मों, नियमों, व्यवहारों से अपनी तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 Jain Education International For Private & Personal Use Only 31 www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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