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प्रत्येक द्रव्य के अनंत पर्याय हैं। हम उनमें कुछ पर्यायों को जानते हैं। इसीलिए द्रव्य ज्ञेय कम और अज्ञेय अधिक हैं। अज्ञात पर्यायों को ज्ञान बनाने के लिए निरंतर खोज की जरूरत है। दर्शन में एक प्रकार का ठहराव आ गया है। वह अपने पूर्वज दार्शनिकों द्वारा खोजे गए सत्यांशों (नय दृष्टि) को परिपूर्ण सत्य मानकर संतोष की सांस ले रहा है। जीवविज्ञान, कर्मवाद, भाग्यवाद, पुरुषार्थवाद आदि की मान्यताओं पर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में विचार करना बहुत आवश्यक है। विज्ञान-जगत में जो सूक्ष्म नियमों की खोज हुई है, उनका दार्शनिक दृष्टि से अंकन करना बहुत जरूरी है। गरीबी, शोषण, अपराध, बीमारी, हत्या, आत्महत्या, भ्रूणहत्या, आतंकवादी मनोवृत्ति-क्या ये दर्शन के चिन्तन बिन्दु नहीं है? हम विज्ञान की उस गति का समर्थन नहीं कर सकते जिसके द्वारा खोजे हुए नियम विश्व के सामने एक संकट पैदा किये हुए हैं। हम दर्शन के द्वारा खोजे गए उन नियमों को विस्तार देने का प्रयत्न करें जो विश्व को मैत्री के सूत्र में बांध सकें। महावीर-वाणी का एक महत्त्वपूर्ण सूक्त इस दिशा में इंगित कर रहा है'अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए'–स्वयं सत्य खोजें, सबके साथ मैत्री करें।
विज्ञान की सीमा वस्तु (ऑब्जेक्ट) है। दर्शन-चेतना (सब्जेक्ट) प्रधान है। विज्ञान को चेतना में घटित घटना मान्य नहीं है और दर्शन का पदार्थ में घटित होने वाली घटनाओं से संबंध नहीं है। इसीलिए इन दोनों की पारस्परिकता पूरकता का विकास होना चाहिए। इससे वैश्विक समस्याओं के समाधान में बहुत बड़ा योग मिल सकता है।
विज्ञान के तकनीकी विकास में हमें एक सुलभता और प्रदान की है जो दर्शन एवं अध्यात्म-साधना के द्वारा प्रदत्त वृत्ति-परिष्कार की पद्धतियों का वस्तुनिष्ठ अंकन कर उनकी उपादेयता को और अधिक आधारभूत बना सकती है। उदाहरणार्थ -अमुकअमुक ध्यान प्रणाली द्वारा चित्त की चंचलता या शरीर का तनाव या भावों का परिष्कार घटित होता है या नहीं-इसे वस्तुनिष्ठ रूप में अंकित करने वाले उपलब्ध वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से पूर्ण वैज्ञानिक विधि-सम्मत परीक्षणों द्वारा मानव-जाति की अनेक समस्याओं का समाधान निर्धारित किया जा सकता है। यदि ऐसे प्रयोग एवं परीक्षण शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्ध करवाए जाएं तो असीम भोग-वृत्ति से उत्पन्न हिंसा, विषमता, वंचना आदि को न्यून करने की दिशा में एक निर्णायक प्रतिकार की क्रियान्विति की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो दर्शन (अध्यात्म) को आनुप्रायोगिक दर्शन (Applied Philosophy) का वह रूप दिया जा सकता है जो सर्व कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है।
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
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