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________________ साम्प्रज्यवादी मनोवृत्ति बाजार पर प्रभुत्व ● जाति का अहंकार साम्प्रदायिक कट्टरता • असीम इच्छाओं वाली मानव- प्रकृति • उपभोग सामग्री की विषमतापूर्ण अवस्था और व्यवस्था ( प्रणाली) इसे भी अधिक मूल कारण है——व्यक्ति का अपने संवेगों पर नियंत्रण न होना । संवेग-संतुलन के व्यापक प्रसार और प्रयोग पर गहन विचार किये बिना वैज्ञानिक युग में उपजी हुई समस्याओं का समाधान नहीं किया जा सकता । परिष्कार के लिए शिक्षा की प्रणाली पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। केवल हिन्दुस्तान में ही नही, पूरे विश्व में । 12 1. आजीविका की समस्या को सुलझाने के लिए । 2. सद्गति के लिए । सद्गति का अर्थ है— जीवन मूल्यों अथवा चारित्रिक मूल्यों का विकास। इसके अभाव में समाज में सद्गति की अनुभूति नहीं होती, स्वस्थ समाज की रचना नहीं होती । जैन चिन्तन में शिक्षा के दो प्रकार बतलाए गए हैं 1. ग्रहण - शिक्षा, 2. आसेवन - शिक्षा गुरु अथवा शिक्षक की वाणी अथवा पुस्तक से प्राप्त होने वाला ज्ञान ग्रहण - शिक्षा है । आसेवन - शिक्षा प्रायोगिक शिक्षण है । विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में प्रायोगिक शिक्षा चालू है । किन्तु मानवीय चेतना को बदलने वाली प्रायोगिक शिक्षा विज्ञान के क्षेत्र में भी चालू नहीं है । चारित्रिक मूल्यों के विकास के लिए जरूरी है मूल्य चेतना को नियंत्रित करने वाली प्रायोगिक शिक्षा । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अणुव्रत - प्रवर्तक आचार्य तुलसी के नेतृत्व में भी जीवन विज्ञान की प्रणाली विकसित की गई । चेतना का रूपान्तरण करने के लिए आसन, प्राणायाम, प्रेक्षाध्यान, कायोत्सर्ग, भावना और अनुप्रेक्षा- इनका प्रायोगिक अभ्यास नितान्त अपेक्षित है। यह विज्ञान के छात्र के लिए भी उतना ही आवश्यक है जितना कला संकाय के छात्रों के लिए । 1 पदार्थभिमुखता भौतिकवाद का एक प्रमुख लक्षण है। वर्तमान युग में उसका स्थान तकनीकी अभिमुखता ने ले लिया है। यदि उसकी सीमाएं निर्धारित न की जाएं तो सांस्कृतिक मूल्यों को बचाना संभव नहीं । उन मूल्यों की सुरक्षा के लिए दर्शन की सीमाओं विस्तार करना होगा । आज का दार्शनिक चिन्तन युग की समस्याओं को सुलझाने का चिन्तन प्रस्तुत नहीं कर रहा है, इसलिए विज्ञान का एकाधिकार और प्रभुत्व स्थापित हो रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 110 www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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