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खोजना बहुत कठिन है। दर्शन के आधार पर आचार-संहिता का निर्माण हुआ है किन्तु विज्ञान के आधार पर कोई संहिता नहीं बनी। वैज्ञानिक नियमों की खोज तक सीमित हो गए हैं। उसका सार आचार है, यह सच्चाई उन्हें अभी मान्य नहीं है। यदि यह सच्चाई मान्य होती तो संहारक अस्त्रों का निर्माण कभी नहीं होता। प्रकृति दोहन भी नहीं होता। गरीबी को बढ़ाने वाली सुविधावादी सामग्री का केवल व्यावसायिक हित के लिए निर्माण भी नहीं किया जाता।
योग अथवा अध्यात्म का प्रमुख आधार है-अहिंसा। वह आधार भी है और आचरण भी। पर्यावरण की समस्या इसीलिए है कि समाज अहिंसा की व्यापकता का अनुभव नहीं कर रहा है। किसी प्राणी को मत मारो—यह अहिंसा की सीमा नहीं है। शस्त्र का निर्माण मत करो, यह भी उसकी सीमा नहीं है। अहिंसा का व्यापक स्वरूप है--संयम की चेतना का निर्माण । हम पर्यावरण को विशुद्ध करने और निःशस्त्रीकरण का प्रयत्न करते हैं किन्तु चेतना के रूपांतरण का प्रयत्न नहीं करते। क्या चेतना का रूपान्तरण किये बना प्रकृति का अति दोहन, पर्यावरण का प्रदूषण और शस्त्रों का निर्माण रोका जा सकता है? उपभोग की चेतना का रूपान्तरण किये बिना प्रकृति के अतिदोहन को रोका नहीं जा सकता?
___ सुविधावादी और विकास के असंतुलित दृष्टिकोण को बदले बिना, जीवननिर्वाह के लिए अपोषक उपभोग सामग्री के उत्पादन की सीमा करने वाली मनुष्य की भावधारा ही शस्त्र-निर्माण का मूल आधार है। मनुष्य-शरीर में भाव का केन्द्र है-मस्तिष्क। शस्त्र पहले मस्तिष्क में पैदा होता है, फिर वह कारखाने में। निःशस्त्रीकरण की चर्चा बहुत सार्थक नहीं होगी।
वैज्ञानिक चिन्तन और आविष्कार के बाद विकास की अवधारणा इतनी जटिल हो गई कि पीछे लौटना भी संभव नहीं और पीछे लौटे बिना सभ्यता पर छाये हुए संकट के बादलों का बिखरना भी संभव नहीं। तकनीकी विकास पर भी विवेकपूर्ण अंकुश लगाना जरूरी है। क्या यह तकनीकी विकास उपादेय है, जो मानव की अस्मिता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है। हमें मुड़कर देखना होगा कि सीमातीत तकनीकी विकास के बाद मनुष्य ने क्या खोया और क्या पाया? मानसिक शांति, तनावमुक्त मनःस्थिति एवं स्वास्थ्य परं उसका क्या प्रभाव पड़ रहा है? इसे उपेक्षित कर तकनीकी विकास को एकाधिकार प्रभुत्व नहीं दिया जा सकता।
विश्व-शांति, पूरा विश्व एक मानव-परिवार, निःशस्त्रीकरण-शब्दों का बारबार पुनरुच्चारण होता रहता है। यदि शब्दोच्चारण मात्र से विश्व-शांति स्थापित होती तो कभी की हो जाती। इन शब्दों की पुनरावृत्ति कोई बुरी बात नहीं है, बहुत अच्छी है किन्तु इसके साथ विश्वशान्ति के बाधक तत्त्वों पर एक गंभीर चिन्तन जरूरी है। उसके बाधक तत्त्वों की एक संक्षिप्त तालिका यह हो सकती है
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
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