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________________ भारतीय मनीषियों ने पदार्थवादी दृष्टिकोण को ससीम रखने के लिए आध्यात्मिक चेतना का विकास किया। जैन दर्शन में तत्वविद्या और अध्यात्म-दोनों परस्पर संश्लिष्ट हैं। तत्वविद्या से विश्व-स्थिति का यथार्थ बोध होता है। उस बोध की निष्पत्ति भौतिक विकास और आध्यात्मिक विकास-दोनों दिशाओं में हो सकती है। अनेकान्त दृष्टि के अनुसार भौतिक विकास को सर्वथा नकारा नहीं जा सकता। उसे जीवनयात्रा के पूरक तत्त्व के रूप में स्वीकृति दी गई। फलस्वरूप आध्यात्मिक विकास जीवन का लक्ष्य बन गया। सभी दर्शनों ने अध्यात्म को प्रतिष्ठित किया, वह भारतीय चिन्तन का एक अमूल्य धरोहर बन गया। दर्शन को केवल तत्वविद्या तक सीमित करना उचित नहीं है। विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाज-शास्त्र आदि दर्शन के वटवृक्ष की मात्र शाखाएं हैं। उनकी अपनी कोई जड़ नहीं है। दार्शनिक दृष्टि समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र केलिए जितनी जरूरी है उतनी विज्ञान के लिए जरूरी है। दर्शन और विज्ञान को सर्वथा पृथक् करना दर्शन और विज्ञान दोनों के विकास में एक अवरोध है। - जैन दर्शन ने सृष्टि और सृष्टि-संचालन के लिए किसी ईश्वरीय सत्ता को स्वीकार नहीं किया है। इसलिए उसने सार्वभौम और सामयिक नियमों की खोज की है। उसी के आधार पर विश्व-व्यवस्था की व्याख्या की है। चेतन और अचेतन में सर्वथा भिन्नता का सिद्धान्त अनेकान्त के अनुसार समीचीन नहीं है। भौतिक विज्ञान ने विश्व-व्यवस्था के अनेक नियमों की खोज की है और प्राचीनकाल में दर्शनों ने भी की। नियमों की खोज सत्य की खोज है। इसलिए हम दर्शन और विज्ञान के बीच कोई लक्ष्मण-रेखा नहीं खींच सकते। दार्शनिक जगत के चेतन और अचेतन-दोनों के नियमों की खोज की। विज्ञान जगत की खोज का अब तक मुख्य विषय है-अचेतन द्रव्य (पुद्गल द्रव्य) के नियमों की खोज। योग और अध्यात्म दर्शन की सीमा से परे नहीं है। ये दोनों भारतीय दर्शन के मौलिक आधार हैं। नियमों की खोज के लिए स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना नितान्त आवश्यक है। योगी और अध्यात्म साधक ध्यान और समाधि के द्वारा अतीन्द्रिय चेतना का विकास कर लेते थे। उस अतीन्द्रिय चेतना के आधार पर सूक्ष्म सत्यों की खोज की जाती थी। वैज्ञानिक सूक्ष्म नियमों की खोज सूक्ष्म यंत्रों के माध्यम से करते हैं। आखिर प्रस्थान दोनों का सूक्ष्म की ओर है। दार्शनिक जगत के पास परीक्षण के लिए कोई प्रयोगशाला नहीं है। वैज्ञानिक को उसकी सुविधा प्राप्त है। किन्तु इस प्रसंग में हमें स्वीकार करना चाहिए कि योग और अध्यात्म के साधकों ने इन्द्रियपटुता और अतीन्द्रिय चेतना का इतना विकास किया था कि उन्हें तांत्रिक प्रयोगशाला की अपेक्षा नहीं रही। ‘णाणस्स सारमायारो'-ज्ञान का सार है-आचरण । नियुक्तिकार का यह अभिमत दर्शन और आचार की एकता का सेतु है। 'मूल्यपरक विज्ञान'-इसमें संगति 10mm तुलसी प्रज्ञा अंक 110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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