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________________ प्रवचन पाय जरूरी है दर्शन की सीमा का विस्तार -आचार्य महाप्रज्ञ अचेतन कभी चेतन नहीं होता और चेतन कभी अचेतन नहीं होता-इस सार्वभौम नियम के द्वारा विश्व को देखने और उसकी व्याख्या करने का एक दृष्टिकोण हैजैन दर्शन। सत् की अनेक व्याख्याएं हैं। तत्त्वार्थ सूत्र के रचनाकार आचार्य उमास्वाति ने सत्य की त्रयात्मक व्याख्या की है। उनके अनुसार उत्पाद, व्यय और घ्रौव्य की समन्विति सत् है। चेतन भी सत् है और अचेतन भी सत् है। जीव अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, इसका हेतु ध्रौव्य का नियम है। अपरिवर्तनीय स्वरूप की व्याख्या उसी के आधार पर की जा सकती है। उत्पाद और व्यययह परिवर्तन का नियम है। इसके आधार पर द्रव्य के परिवर्तनीय स्वरूप की व्याख्या की जा सकती है। चेतन अथवा जीव, अचेतन अथवा अजीव से भिन्न है, यह अध्यात्म का मौलिक आधार है। जीव-द्रव्य भी परिवर्तन के नियम से मुक्त नहीं हैं, इसलिए उसके नानारूप बन जाते हैं। उनमें कुछ रूप अध्यात्म के साधक हैं और कुछ बाधक। राग-द्वेष आदि बाधक तत्त्वों से मुक्ति पाने के लिए वीतरागता की साधना की जा सकती है। यह वीतरागता अध्यात्म का मौलिक स्वरूप है। समाज की प्रवृत्ति रागात्मक है। मनुष्य के विकास का माध्यम है-इन्द्रियसमूह। यह ज्ञानात्मक है, साथ-साथ पदार्थ-जगत के आकर्षण का माध्यम भी है। इसलिए समाज अथवा व्यक्ति की व्याख्या एकान्त दृष्टिकोण से नहीं की जा सकती। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000 3 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524605
Book TitleTulsi Prajna 2000 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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