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कर्मणा जैन बन सकते हैं। जैनत्व को नई पहचान दे सकते हैं। लेखक का स्पष्ट संबोध है कि यदि जैनत्व की संस्कृति से श्रावक अपनी पहचान नहीं बना सकता है तो वह पुश्तैनी श्रावक अवश्य बन सकता है मगर पुख्ता श्रावक नहीं बन सकता जबकि आज जरूरत है ऐसे श्रावक की जो दिखने वाले श्रावक ही न हो, सही अर्थों में श्रावक होने का स्वयंभू प्रमाण बने।
साहित्यिक दृष्टि से श्रावक संबोध काव्यात्मक गेय रचना है। इसमें राजस्थानी के गीत, छंद, दोहा, सोरठा, लावणी आदि का प्रयोग है। सभी छंदों में गेयात्मकता है। स्वराभिव्यंजना है। भाषा की प्राञ्जलता एवं अर्थगम्यता में सहज संबोध है। गूढ़ तत्वों को सीधी सरल भाषा में कह देने की विशिष्ट रचनाधर्मिता है। इसमें शब्दशिल्प अर्थवैभव के साथ उतरा है। पद्य रचना में प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषाओं का प्रयोग ही नहीं किया, तुकबन्दी में अंग्रेजी भाषा के शब्दों को भी करीने से बिठाया है
श्रावक संबोध में कथ्य शैली का वैविध्य भी चामत्कारिक है। कहीं प्रश्नोत्तर शैली में तात्विक ज्ञान को समेटा है तो कहीं दृष्टान्त शैली में अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों एवं घटनाक्रमों का उल्लेख किया है। जैन दर्शन की ज्ञान-राशि असीम और अथाह है। श्रावक के लिए सम्पूर्ण अर्हत्-वाणी का स्वाध्याय, ज्ञान संभव नहीं, अतः श्रावक के लिए स्वाध्याय का एक संक्षिप्त, सामयिक एवं सटीक पाठ्यक्रम की सूची प्रस्तुत की है जो श्रावक की प्राथमिक शिक्षा का प्रतीक है।
श्रावक संबोध के अन्तिम चरण पर सदियों तक श्रावक समाज श्रद्धा प्रणत रहेगा। क्योंकि आचार्य श्री की यह रचना उनके द्वारा स्वयं संघ को उपहार में समर्पित की गयी है। इस रचना के साथ उनका अनुग्रह और मंगल आशीर्वाद भी जुड़ा हैश्रावक संबोध संघ में मंगलमय हो। श्री जिनशासन का 'तुलसी' सदा विजय हो।
(२/७२) श्रावक संबोध उनकी साहित्य रचना की श्रृंखला में अन्तिम रचना है मगर यह श्रद्धा और गौरव के साथ कहा जा सकता है कि यह उनकी श्रावकों के नाम प्रेरणाभरी अमर कृति है। अथ से इति तक श्रावक के चरित्र को केन्द्र में रखा गया है। इस बात का संबोध दिया गया है कि श्रावक का चरित्र जब हाशिए पर आ जाता है तब अस्तित्व और अस्मिता दोनों खतरे में पड़ जाती है। इसलिए श्रावक संबोध को प्राचीन मूल्यों के योगक्षेम में नए मूल्यों की प्रस्थापना का क्रान्तिकारी कदम कहा जा सकता है।
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IIII तुलसी प्रज्ञा अंक 109
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