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मनोवैज्ञानिक पद्धति है। श्रावक भी अपने स्वरूप निर्धारण में स्वयं स्वयं से प्रश्न करे- मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? कहां जाऊंगा? मेरे लिए क्या करणीय है ? आदि-आदि। श्रावक संबोध में एक ही पद्य में अनेक ऐसी जिज्ञासाएं उठाई हैं जिनका ऊहापोह श्रावक के स्वरूप निर्धारण में मुख्य भूमिका निभाता है
मेरी गति, जाति, काय क्या है ? कति इन्द्रिय-शक्ति समासृत हूं? पर्याप्ति, प्राण, कितने शरीर? कितने कर्मों से आवृत्त हूं? किस गुणस्थान में मैं स्थित हूं? किस आत्मा में किन भावों में?
दृष्टित्रय ध्यान-चतुष्टक- लेश्या के प्रबल प्रभावों में? (२/२)
श्रावक के चरित्र को मनोविज्ञान की भाषा में दो श्रेणियों में बांटा गया हैविधायक और निषेधात्मक अथवा अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी । श्रावक की सही पहचान है- - वह भव्य, सम्यग् दृष्टि, परित संसारी, सुलभ बोधि, आराधक, चरम और शुक्लपक्षी होता है ।
इन अर्हताओं का हेतु क्या है? इस प्रश्न के समाधान में भगवान महावीर ने श्रावक की गुणात्मक चेतना को प्रकट किया है। उन्होंने कहा- जो साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका तीर्थ चतुष्टय का हित चाहता है, सुख चाहता है, पथ्य दुःख का निवारण चाहता है, वह उसके प्रति अनुकम्पित है, उसके निश्रेयस् की चिन्ता करने वाला है। उसके हित, सुख और निश्रेयस् के लिए सदा जागरूक रहता है इसी कारण व्यक्ति में उपर्युक्त अर्हताओं का विकास हुआ है।
श्रावक सम्बोध में जहां तत्वज्ञान की गूढ़ता का उल्लेख है वहां जीवन की व्यवहार शैली पर छोटी से छोटी बात पर ध्यान दिया गया है - जैसे प्राचीन परम्परा थी - श्रावक खुले मुंह से साधु सन्तों से संवाद नहीं करता था । इसे अजयणा यानी असावधानी कहा जाता मगर यह संस्कार प्रायः लुप्त-सा होने लगा है। लेखक ने इस विवेकी परम्परा को पुनर्स्थापित करने के लिए प्रेरणा दी
शिष्टता संयम अहिंसा साधना संस्कार हो और जयणा सजगता से धर्म का व्यवहार हो ।
(२/४४)
श्रावक संबोध श्रावकाचार का नवाचार रूप है। लेखक ने उन लोगों की मानसिकता बदलने का प्रयत्न किया है जो बारहव्रती, प्रतिमाधारी, श्रावक नहीं बन सकते । प्रतिदिन सामायिक, सन्त-दर्शन, प्रवचन श्रवण, स्वाध्याय, त्याग, तप आदि धार्मिक उपासना में अपने आपको जोड़ने के लिए समय नहीं निकाल पाते। वे लोग भी जन्मना जैन होने के साथ-साथ तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-सितम्बर, 2000
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