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इस सन्दर्भ में श्रावक संबोध के भाष्य में उद्धृत यह बात द्रष्टव्य है कि आचार्य श्री प्रश्न पूछा गया कि संघ में धनाढ्य लोगों को इतना महत्व क्यों दिया जाता है तो ग्रन्थकार ने समाधान में कहा - प्रश्न धनाढ्य या गरीब का नहीं होता, प्रश्न उपयोगिता का होता है । इस बात को गहराई से समझना चाहिए। जहां सामायिक के प्रसंग में श्रावक पूणियां का मूल्यांकन किया जाता है वहां जिनशासन की प्रभावना में राजा श्रेणिक का नाम उल्लेखनीय है। जहां संघ की प्रभावना में तपस्वी, मौनी, ध्यानी, तत्ववेत्ता, प्रवक्ता, लेखक, कलाकार व्यक्तियों का मूल्य है वहां आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, सामाजिक, प्रतिष्ठानों में श्रावक का ऊंचे पदों पर प्रतिष्ठित होना भी संघ गरिमा का अंग है ।
श्रावक संबोध में पारम्परिक मान्यताओं को सम्मान देते हुए युगीन चिन्तन को भी स्वीकृति दी गई है । लेखक प्राचीन मूल्यों के अनुकरण को सामाजिक और वैयक्तिक विकास में बाधक नहीं मानता। उन्होंने विवेक जोड़ने की बात कही। उन्होंने स्वयं कहा है
‘मैं परम्परा विरोधी नहीं हूं। अच्छी परम्पराएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रान्त होती रहे, यह आवश्यक है। जिस देश में या समाज में परम्परा को कांच का बर्तन समझकर एक झटके से तोड़ दिया जाता है वह देश और समाज अपनी सांस्कृतिक एवं सामाजिक विरासत को सुरक्षित नहीं रख सकता। इसलिए श्रावक संबोध श्रावक की विवेक चेतना जगाता है कि प्राचीनता एवं नवीनता के बीच समन्वयदृष्टि का विकास कर उपादेय को स्वीकारे ।
श्रावक संबोध में जहां, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की पारम्परिक चर्चा की गई है, बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमा, तीन मनोरथ, चार विश्राम, चार महास्कन्ध एवं नव तत्व, षड्जीवनिकाय, अनेकान्त दर्शन की व्याख्या में सप्तभंगी, स्याद्वाद् दृष्टि, चतुर्भंगी, उत्पादव्ययध्रौव्य की त्रिपदी की तत्व - मीमांसा का उल्लेख है वहां सिद्धान्तों को व्यवहार सम्पदा में बदलने का प्रायोगिक प्रशिक्षण भी दिया गया है जिसका प्रमाण है- आधुनिक चार महास्कन्ध वर्जन, जैन - जीवन शैली, नव सूत्रीय जीवन चर्या का प्रावधान। श्रावक प्राचीन मूल्यों का योगक्षेम करे, साथ ही साथ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में युगीन जीवन-शैली के साथ अपने नैतिक दायित्व एवं कर्त्तव्य को भी बनाए रखे, यही सन्देश है श्रावक सम्बोध का ।
श्रावक संबोध में श्रावक का क्या स्वरूप हो? इसकी व्याख्या में आचार्य तुलसी ने आगमिक प्रश्नोत्तर शैली का प्रयोग किया है । आगमिक युग में तत्वज्ञान और आत्म स्वरूप की अन्वेषणा प्रश्नोत्तर शैली में हुआ करती थी । यह शैली स्वयं से स्वयं को जानने की
| तुलसी प्रज्ञा अंक 109
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