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साधक होना, सद्दाल पुत्र द्वारा पुरुषार्थवादी अभिमत को स्वीकारना, सुदर्शन की अभय साधना का प्रकट होना, पोक्खली आदि श्रावकों का नि:शल्य होकर शंख से क्षमायाचना करना आदि श्रेष्ठताओं का उल्लेख कर श्रावकत्व के मानक प्रस्तुत किए हैं। इसी तरह श्रावक संबोध में तेरापंथ श्रावक परम्परा के अनेक व्यक्तियों की श्रद्धा, निष्ठा, समर्पण, त्याग, बलिदान की गौरव गाथाओं को गुम्फित कर उन दृष्टान्तों को दिशा-बोध का माध्यम बनाया है।(२/२१-२७)
लेखक ने प्राचीन काल की उन सन्नारियों का भी गौरवशाली वर्णन किया है जिन्होंने अपने शील और संयम की सुरक्षा में प्राणों तक को दांव पर लगा कर जैन-शासन की प्रभावना की है। श्राविका जयन्ती का तत्वज्ञान, सुलसा की दृढ़ धार्मिकता, रेवती का सुपात्रदान, रानी धारिणी के शीलव्रत का संरक्षण, सुभद्रा का सतीत्व परीक्षण और चन्दना का धृतिबल श्राविका समाज के लिए प्रेरणा के प्रकाशदीप हैं। (२/२८-३२) ग्रन्थकार ने आदर्श नारियों के गुणानुवाद में जो उदात्त दृष्टिकोण दिखाया और उनके प्रति स्वयं बद्धांजलि होकर जो विनम्र संवेदनशील अभिव्यक्ति दी-एक धर्मसंघ के आचार्य द्वारा महिलाओं के सम्मान में यह कहना-'धन्य तुलसी धन्य सौ-सौ बार विधिवत वंदना' एक साहसिक कदम है। इससे नारी जाति की पूज्यता को ऊंचे शिखर मिले हैं।
संघीय-विकास और प्रभावना का एक मुख्य घटक श्रावक को भी माना गया है। साधु की तरह श्रावक की भी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है। इसीलिए कहा गयाजिनशासन का अविभाज्य अंग है श्रावक, मति से, गति से जिनमत का सदा प्रभावक। शासन की उन्नति में निज उन्नति देखें, निज उन्नति में शासन उन्नति आलेखे॥ (१/१०)
श्रावक का शुद्ध आचार-विचार, व्यवहार और संस्कार जैन शासन का गौरव बढ़ाता है। उसकी जीवन-शैली जैनत्व की पहचान बनती है। इसलिए वह ऐसा कोई काम नहीं करता जिसके लिए कोई उसकी ओर अंगुली उठाए । श्रावक अपने विकास की उपलब्धियां संघ को अर्पित करता है और संघ अपनी प्रभावना का श्रेय श्रावक को देता है। दोनों एकदूसरे से जुड़े होते हैं।
जिस संघ में अर्थवैभव और संस्कारवैभव से सम्पन्न श्रावक समाज होता है वह संघ अपनी गौरवशाली पहचान रखता है। जिस समाज में रोटी, मकान, कपड़ा, शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार के लिए श्रावक अभावों में जूझता रहता है वह श्रावक समाज न प्रगतिशील हो पाता है और न ही प्रामाणिक रह पाता है।
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 NITISINITINITI
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