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________________ तीर्थंकर की कृति जैसा सम्बोधन पाकर श्रावक कृतार्थ हो गया। भला इससे बड़ा और क्या पुरस्कार होगा और क्या नेमप्लेट होगी? मगर आज के परिप्रेक्ष्य में चिन्तनीय प्रश्न है कि क्या सही अर्थों में हम जैन हैं? आज तो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित युवा-पीढ़ी अपने आपको जैन कहने में भी शर्म महसूस करती है, क्योंकि उनके पास न ऐसे ऊंचे आदर्श हैं जिनका ज्ञान और आचरण एक सा है, न स्वस्थ संस्कार है न आदर्श संस्कृति है और न सही समय पर गलत रास्तों पर जाने से रोकने वाले सक्षम हाथ हैं न ईमानदार प्रयत्न हैं इसलिए श्रावक सम्बोध में श्रावक को सचेत किया है कि श्रावक जन्मना नहीं, कर्मणा भी अपनी पहचान बनाए। भगवान महावीर के अनेकान्तिक दृष्टिकोण का यह फलित है कि उन्होंने श्रमण और श्रावक को अन्योन्याश्रित भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने साधु की तरह श्रावक को भी धर्म करने का अधिकार दिया। उसकी आचार-संहिता बन गई। व्रतों की व्यवस्था दी, जीवन-शैली की व्याख्या दी। साधना-उपासना का क्रम उपस्थित किया। यही नहीं, उन्होंने भगवान द्वारा दिये गये श्रावक के लिए 'अम्मापिउसमाणा' सम्बोधन से दायित्व की सीमाओं को अधिक व्यापक बना दिया। श्रावक साधुओं के मां-बाप तुल्य होते हैं। वे साधुओं के निश्रास्थान कहलाते हैं, इसलिए उन्हें अधिकार है कि वे सन्तों की कोई गलती देखे तो अंगुलि निर्देश करें। न माने तो शालीनता के साथ अनुशासनात्मक कार्यवाही भी करें। श्रावक संबोध में भी इस बात की पुष्टि की गई है पर साथ ही साथ श्रावक को सावधान भी किया गया है कि वह निर्हेतुक हस्तक्षेप न करें। यह अधिकार सिर्फ साधुत्व सुरक्षा में, संयम पालना में सहयोग की दृष्टि से दिया गया है। अंगुलि-निर्देश सन्तों के लिए श्रावक करे, समय पर अनुशासनात्मक कार्यवाही भी करे। नहीं हस्तक्षेप किंचित मात्र निर्हेतुक कभी, सदा अपने क्षेत्र में शालीनता साधे सभी॥ (2/19) इस प्रकार संघीय व्यवस्था और प्रभावना में श्रावक को नजदीकी एवं निजता का दायित्व और अधिकार देकर जैन शासन ने उसकी महत्ता को और अधिक बढ़ा दिया। आगम युग के श्रावक एवं श्राविकाओं के जीवन आदर्शों का उल्लेख कर श्रावक पीढ़ी के सामने पथदर्शकों की एक पंक्ति खड़ी कर दी। इन श्रावकों की धर्मनिष्ठा, लक्ष्यनिष्ठा, संकल्पनिष्ठा और चरित्र-निष्ठा ने जैनत्व संस्कृति को नई पहचान दी है। उन्होंने पूणिया श्रावक की सामायिक में अखण्ड निष्ठा का होना, श्रावक आनन्द का संयम, श्रम, समता का 86 AMITITITITI TIIIIIIIIIIII IIIIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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