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________________ अधिक, आकांक्षाएं उससे भी अधिक तब पदार्थ और प्राणी के बीच सन्तुलन कैसे बैठे? आचार्य श्री ने भोगवाद, इच्छावाद, संग्रहवाद और व्यक्तिवाद इन सबके लिए एक शब्द में ही समाधान दे दिया कि 'सीमांकन संस्कार' की साधना करो उपभोक्ता अनपार, परिमित भोग्य पदार्थ है, सीमांकन संस्कार, समाधान श्रावक करे ॥ १/४२॥ गुणव्रत-दिग्व्रत, भोगोपभोगव्रत एवं अनर्थदण्ड विरमण की साधना का फलित बतलाया - इच्छाओं का समीकरण, उपयोगिता के प्रति जागरूकता। श्रावक संबोध श्रावक की आम जीवन-शैली में गुणव्रतों को आदतन संस्कार बनाने की प्रेरणा देता है O श्रावक सामायिक करे यानी समत्वभाव का अभ्यास करे। श्रावक पौषध करे यानी साधु जीवन कैसा होता है? एक दिन ही सही, इसका अनुभव करे। श्रावक संविभाग की मनोवृत्ति का विकास करे। साधु को देना सिर्फ भिक्षा देना ही न माने बल्कि मनुष्य में धर्मानुराग, विसर्जन की मानसिकता, अनासक्त-चेतना का विकास होता है। साथ ही साथ यह भवसागर को पार उतारने में नौका तक का काम करता है। श्रावक संबोध श्रावक को केवल जीना ही नहीं सिखाता, श्रावक समाधिमरण कैसे करे? उसके लिए भी संलेखनासंथारे की प्रक्रिया समझाकर उसे देहासक्ति से मुक्त होने की प्रेरणा देता है ताकि श्रावक मृत्यु को भी महोत्सव बना सके। व्रतों की यह परम्परा केवल चर्या की रूढ़ता नहीं है। इस साधना से श्रमण संस्कृति की अविच्छिन्न आध्यात्मिक परम्परा जुड़ी हुई है। यह व्रत परम्परा आज का आम आदमी भी जी सकता है, क्योंकि आत्म-विशुद्धि सबको काम्य है। आगमों में वर्णित श्रावक के तीन मनोरथों एवं चार विश्रामों का वर्णन उपलब्ध है। श्रावक संबोध इसे युगीन भाषा में अभिव्यक्ति देता है। मनोरथ लक्ष्य के प्रति समर्पित चेतना का संकल्पबद्ध होना है। स्वीकृत संकल्पों को अथवा निर्धारित लक्ष्य का पुन:-पुनः अवधान करने से मनचाहा फलित होता है। इसलिए भगवान ने कहा-मनुष्य जीवन की सार्थकता में जो करणीय कार्य है, उन्हें करो। छद्मस्थता की वजह से अभी नहीं तो कभी तो होगा, इस संकल्प भावना को पुष्ट करते रहो। मनोरथ पाने का मतलब है श्रावक अनुप्रेक्षा करता रहेजीवन का अन्तिम लक्ष्य सदा सामने रहे-जीवन परिवर्तन की यह प्रायौगिक भूमिका है। इसी तरह से श्रावक के चार विश्रामो के आगमिक सन्दर्भ को आज की भाषा में प्रस्तुति देते हुए आचार्य श्री तुलसी ने आज के समस्या-संकुल परिवेश में तनावों की भीड़ में जीते हुए व्यक्ति तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 STILITIATIVI 81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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