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________________ के लिए विश्राम की अनिवार्यता बतलाई है। यदि व्यक्ति आसक्ति कम नहीं करेगा, चिन्ताओं का बोझ नहीं उतारेगा, इच्छाओं का परिसीमन नहीं करेगा तो मानसिक तनावों का बोझ ढ़ोते-ढोते वह थक जाएगा। अतः उसे विश्राम लेना होगा और उसके लिए कहा गया"बने श्रावक श्रान्त खिन्न नितान्त अव्रत भार से'॥ इसलिए भगवान ने कहा-'सव्वं विरति कुज्जा'-सर्वत्र विरति करो। संकल्प विकल्पों के विश्राम से संयम सधता है और संयम से सुख और सुख से शांति मिलती है। इसलिए तनावों की बोझिल जिन्दगी में अव्रत का संयम करें। श्रावक संबोध में श्रावकत्व की श्रेष्ठता का एक मानदण्ड यह भी माना गया कि जो चार महास्कन्धों से मुक्त होगा, वह महाश्रावक कहलाएगा। इसके लिए श्रावक1. जीवन भर अब्रह्मचर्य का त्याग करें। 2. रात्रि खान-पान का परिहार करें। 3. सचित्त के ग्रहण का त्याग करें। 4. कंदमूल पदार्थ सेवन का त्याग करें। मगर आधुनिक जीवन-शैली में महास्कन्धों की साधना आम आदमी के लिए सहज नहीं होती। आज के माहौल में जहां सुविधावाद, सुखवाद, पदार्थवाद और इच्छावाद सीमाए लांघ रहा हो वहां आगम वर्णित इन चार महास्कन्धों के त्याग की बात कोई सोच भी नहीं सकता। ऐसी स्थिति में जैन संस्कारों की सुरक्षा में युवा मानस को प्रेरित करते हुए आचार्य श्री ने नई विधा में महास्कन्ध परिहार की साधना प्रस्तुत कीनई विधा से भी हो महास्कन्ध का वर्णन, रूढ़िमुक्ति, आसक्ति-मुक्ति, आवेश-विसर्जन। अप्रमाणिक वृत्ति कभी क्या जगे हृदय में, अनाग्रही चिन्तन हो अनेकान्त की लय में ॥१/६० ॥ प्राचीन समय में श्रावक के लिए प्रतिदिन चौदह नियम स्वीकारने की परम्परा थी। आज भी परम्परा प्रचलित है। सचित्त, द्रव्य, विगय, पन्नी, ताम्बूल, कुसुम, वाहन, शयन, विलेपन, अब्रह्मचर्य, दिशा, स्नान और भोजन-इन 14 बिन्दुओं पर आज भी इनका संकल्प पूर्वक श्रावक त्याग करता है। पर कुछ बातों पर समीक्षा भी आवश्यक है, अत: आधुनिक जीवन-शैली के साथ प्रतिदिन नौ सूत्रीय जीवन-शैली का उपक्रम प्रस्तुत करना भी प्रासंगिक एवं उपादेय है। मगर आज साधना के इस उपक्रम के प्रति सचेतता नहीं रह पाई। देर से सोना, देर से उठना और भागती जिन्दगी के दौर में ऐसा करना संभव नहीं लगता, इसलिए आचार्य श्री तुलसी ने श्रावक संबोध में नयी दिशा, नई दृष्टि दी खाद्यों की सीमा वस्त्रों का परिसीमन, पानी बिजली का हो न अपव्यय धीमन ! यात्रा-परिमाण मौन प्रतिदिन स्वाध्यायी, हर रोज विसर्जन अनासक्ति वरदायी। हो सदा संघ सेवा, सविवेक सफाई, प्रतिदिवस रहे इन नियमों की परछाई ।। १/६२ ॥ . 82 AIRWAINIK ANILITTLITTLINIW तुलसी प्रज्ञा अंक 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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