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श्रावक-संबोध
एक परिक्रमा
श्रावकाचार का नवाचार
मुमुक्षु शान्ता जैन
जैन परम्परा में धर्म का अधिकार सबको दिया गया है, चाहे वह श्रमण हो या श्रावक। आगार धर्म एवं अणगार धर्म की प्ररूपणा साधना की दृष्टि से भगवान महावीर की महत्वपूर्ण देन है। श्रावक के लिए दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्परा के साहित्य में श्रावकाचार का विशद वर्णन उपलब्ध है। आचार्यों द्वारा लिखित इन ग्रन्थों की भाषा प्राकृत एवं संस्कृत निबद्ध होने से सर्व सुलभ एवं सर्वग्राह्य नहीं है। इस दृष्टि से बीसवीं सदी की रचना श्रावकाचार की 'श्रावक संबोध' जिसके रचयिता आचार्य श्री तुलसी हैं, युगभाषा में महत्वपूर्ण कृति कही जा सकती है। श्रावक संबोध श्रावक की आचार-संहिता और व्रती-समाज की स्वस्थ संरचना का संविधान है। इसका सृजन निश्चय और व्यवहार दोनों नयों की मूल्यपरक व्याख्या पर आधारित है। यद्यपि उवासगदसाओ में श्रावक के बारह व्रतों का उल्लेख मिलता है। दशाश्रुतस्कन्ध में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है और भी अनेक प्राचीन ग्रन्थों में श्रावक की व्रत मीमांसा में समृद्ध व्याख्याएं उपलब्ध हैं मगर उन प्राचीन मूल्यों को आज के परिवेश में नए ढंग से प्रस्तुति दिए बिना आज. की पीढ़ी के लिए इनका ज्ञान, श्रवण, निष्ठा और आचरण संभव नहीं है। अतः 'श्रावक संबोध' मानवीय मूल्यों के योगक्षेम में नए चिन्तन एवं सटीक समाधान के
साथ श्रावक को नई दिशा और नई दृष्टि देता है। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 ALUNT
ALINITIN 77
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