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'श्रावक संबोध' श्रावक के चरित्र का भाष्य है। इसमें श्रावक जीवन की मौलिक विशेषताओं का प्राचीन एवं वार्तमानिक विशुद्ध विवेचन उपलब्ध हैं । इसमें श्रावक जीवन की पहचान के मानक प्रस्तुत किए गये हैं। श्रावक कौन हो सकता है? उसका क्या दायित्व है? उसकी जीवन शैली कैसी है? उसका आदर्श, उद्देश्य और आचरण क्या होना चाहिए? आदि बिन्दुओं पर युगीन भाषा में प्रकाश डाला गया है।
__ श्रावक संबोध सिद्धान्त या शास्त्र नहीं है, साधना का संबोध है । ग्रन्थकार ने श्रावक संबोध उन लोगों के लिए बनाया है जो चरित्र निर्माण की निष्ठा से जुड़े हुए हैं। जिन्हें सही रास्ते की खोज है। जो मानवीय मूल्यों की सुरक्षा करना अपना दायित्व समझते हैं। जिनमें ज्ञान-पिपासा है। सही दृष्टिकोण है। सापेक्ष चिन्तन है। त्याग की संस्कृति से जुड़े हैं। निश्चित रूप से श्रावक संबोध ऐसे लोगों के लिए कुहासे में सूरज उगाने जैसा है।
श्रावक संबोध में शाश्वत एवं सामयिकी जीवन मूल्यों का समन्वय है। ग्रन्थकार ने इसकी रचना करते समय मार्क्स के इस चिन्तन को सामने रखा 'दर्शन आदमी को ज्ञान देता है पर बदलता नहीं, इसलिए ऐसा दर्शन चाहिए जो समाज को बदल सके।' लेखक ने श्रावक के लिए ऐसे ही दर्शन को जन्म दिया जिसे श्रावकाचार का नवाचार रूप कहा जा सकता है। यह उन श्रावकों के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जिनके लिए आज के परिवेश में बारह व्रतों और ग्यारह प्रतिमाओं की साधना संभव नहीं और जो सामायिक, सन्त-दर्शन, प्रवचनश्रवण, स्वाध्याय, ध्यान, त्याग, तप आदि उपासनात्मक क्रियाओं में समय नहीं दे सकते पर वे भी स्वस्थ जीवन-शैली की तलाश में हैं। जैनत्व की सुरक्षा में जागरूक हैं।
श्रावक संबोध जैन श्रावकाचार का लघु संस्करण है। इसमें श्रावक की पहचान ज्ञान और आचार की संयुति से करवाई गई है
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, रत्नत्रयी मोक्ष पथ है। उमास्वाति के शब्दों में श्रावक-जीवन का यह अथ है ॥ १/१६ ॥
सम्पूर्ण धर्म, दर्शन, चिन्तन, कर्म और संस्कृति की बुनियाद में ‘णाणस्स सारमायारो' की भावना जुड़ी रही है । जैनधर्म आचारशून्य ज्ञान को स्वीकृति नहीं देता है। यहां आचार का प्राण तत्व व्रत को माना गया है। इसलिए व्रत की भूमिका पर दो श्रेणियां की गई-श्रमण और श्रावक।
श्रमण सर्व सावद्य योगों का त्याग कर संन्यस्त होता है। श्रावक गृहस्थ जीवन से जुड़ा है, इसलिए उसके लिए सर्व सावद्य कार्यों का त्याग संभव नहीं होता। वह कुछ सीमा
78 AIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII तुलसी प्रज्ञा अंक 109
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