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निज शुद्ध भाव का नाम धर्म है जो चतुर्गति के दुख से बचाता है। वस्तुतः धर्म आचरण की संहिता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति समाज के सदस्य के रूप में और एक व्यक्ति के रूप में नियंत्रित होता हुआ क्रमशः विकसित होता है और अन्त में चरम उद्देश्य की प्राप्ति करता है।
जैनाचार्यों ने धर्म को उत्तम सुख में नियोजक, इष्ट स्थान में संस्थापक, चतुर्गति दुख संरक्षक, संसार सागर संतारक, दया अहिंसा संयुक्त, पंचपरमेष्ठी भक्ति, सम्यक्त्व, माध्यस्थ वृति, संस्थापक एवं शुद्धात्मा की परिणति आदि अर्थों में स्वीकार किये हैं, यहां पर मुख्यतः इसके दो भेद स्वीकार किये गये हैं : सकलधर्म और एक देश धर्म। मुनिधर्म, अनगार धर्म या श्रमण धर्म को सकल धर्म तथा गृहस्थधर्म, सागार धर्म या श्रावक धर्म को एकदेश धर्म कहा गया है।
अर्थ : अर्थ की महत्ता सार्वजनिक है। धनवान् पुरुष ही समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। महाभारत, मनुस्मृति, अर्थशास्त्र, वृहस्पतिसूत्र, नीतिशतक आदि ग्रन्थों में धन की महत्ता प्रतिपादित की गई है। महाभारतकार का तो यहां तक कहना है कि वे ही लोग संसार में जीवित रहते हैं जिनके पास धन हैधनमाहु परं धर्म धने धर्म प्रतिष्ठितम् ।” जीवन्ति धनिनो लोके मृता येतु अधनानराः॥
जैन वांगमय में इसे हेय तथा मोक्ष-मार्ग का बाधक बताया गया है।
काम : तृतीय पुरुषार्थ के अन्तर्गत काम की परिगणना की जाती है। व्यक्ति की समस्त कामनाएं, वासनाजन्य प्रवृत्तियां तथा आसक्तिमूलक वृत्तियां काम के अन्तर्गत आती हैं। मानवीय जीवन में काम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे सृष्टि का मूल कहा गया है। धर्मानुमोदित काम की स्वीकृति दी गयी है जो विश्व में मंगल का संस्थापक होता है :
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भातर्षभ अर्थशास्त्र का स्पष्ट निर्देश है कि धर्म से अनुमोदित काम का सेवन करना चाहिए। धर्माविरोधेन कामंसेवेत 41 कालिदास ने लोग मंगल के लिए धर्मानुमोदित काम को उत्कृष्ट माना है। जैन धर्म निर्वृत्तिमूलक है, इसलिए अर्थ और काम दोनों को हेय माना है।
मोक्ष : आत्यन्तिक दुःख निर्वृत्ति मोक्ष है। भारतीय दर्शन में मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति, ब्रह्मपद आदि अनेक शब्द एक ही अर्थ में मिलते हैं। जैन दर्शन में इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। बन्ध हेतुओं का अभाव और निर्जरा से सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है-बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृस्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ।
आत्मा और बन्ध को अलग-अलग कर देना मोक्ष है-आत्म बन्धयोः द्विधाकरणं मोक्षः द्रव्य एव भावरूप सम्पूर्ण कर्ममलों से विरहित होना मोक्ष है । निज स्वरूप, निर्वाण, तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 NAINI TITIIIIIIIII I IN 75
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