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काम कुडिमभवा लहुगत्त कारया अप्पकालियकामा। उवहो लोए दुक्खावहा य ण होति सुलहा ।।3
यहां दो प्रकार के धर्म पुरुषार्थ का निरूपण किया गया है-निश्चय धर्म और व्यवहार धर्म। भोगादि की प्राप्ति के लिए जो धर्म आचरित किया जाता है वह पाप स्वरूप है और इसे जैन धर्म में अस्वीकृत किया गया है- यो भोगादिनिमित्तमेव सपुनः पापं बुधैर्मन्यते ।
धर्म पुण्य रूप होता है और पुण्य बंध होता है, इसलिए इसे भी हेय माना गया है। इस प्रकार शुभ-अशुभ से अतीत जो तीसरी भूमिका है, वहीं वास्तविक धर्म है जो मोक्षमार्ग में सहायक होने के कारण जैन दार्शनिकों को ग्राह्य है। मोक्ष पुरुषार्थ ही सर्वथा ग्राह्य है। जैसे सांख्याचार्यों ने आत्यन्तिक दुःख निवृत्तिरूप पुरुषार्थ को ग्राह्य एवं करणीय माना है उसी प्रकार जैन दार्शनिकों की दृष्टि में मोक्ष पुरुषार्थ ही उत्तम और उपादेय है। परमात्म प्रकाश के अनुसारधम्महं अत्थहं कम्महं वि एयहं सयलहं मोक्खु। उत्तमु पभणहिं णाणि जिय अठणे जेण ण सोक्खु ॥
यद्यपि निर्वाण या दुःख मुक्ति स्वरूप होने के कारण मोक्ष परम पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार्य है लेकिन व्यावहारिक जीवन में धर्म, अर्थ और काम भी संग्राह्य हैं। इनके बिना सृष्टि का व्यवसाय चलना कठिन हो सकता है। अतएव धर्म, अर्थ काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की उपयुज्यता सिद्ध है।
प्रस्तुत संदर्भ में चारों पुरुषार्थों का संक्षिप्त स्वरूप विचार्य है :
धर्म :-धर्म शब्द तुदादिगणीय 'घृड्अवस्थाने' धातु से मन् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है-ध्रियते लोकोऽनेन धरति-लोकं वा अर्थात् जिसके द्वारा लोक धारण किया जाता है या जो लोक को धारण करता है वह धर्म है। कोश ग्रंथों एवं प्राचीन वांगमय में यह शब्द कर्त्तव्य, जाति या सम्प्रदाय में प्रचलित आचार, नैतिक कानून, प्रचलन, प्रथा, धार्मिक या नैतिक गुण, अच्छे कार्य आदि अर्थों में प्रयुक्त मिलता है। महाभारत के अनुसार धारण करने वाले को धर्म कहते हैं, धर्म प्रजा को धारण करता है :धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मोधारयते प्रजा। धत्स्याहारणसंयुक्तः स धर्म इत निश्चयः॥
जो प्राणियों को संसार के दुःख से उठाकर उत्तम सुख में धारण करे, उसे धर्म कहते हैं । सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक के अनुसार जो इष्ट स्थान में धारण करता है उसे धर्म कहते हैं – इष्ट स्थाने धत्ते इति धर्मः।"
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IIIIIIIIIIIIIINNINV तुलसी प्रज्ञा अंक 109
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