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द्रव्य व्यञ्जन पर्याय नैगमाभास है तथा मनुष्य तथा गुणवानपने में सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद मानना अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय नैगमाभास हैं 132
आचार्य विद्यानंद के परवर्ती देवसेनाचार्य (वि. 990 शती) और माइल्लधवल 4 (वि. 11वीं शती) ने भी नैगमनय के तीन भेदों की चर्चा की है तथाऽपि नैगम और नैगमाभास के भेद प्रभेदों की चर्चा जितने विस्तार से आचार्य विद्यानन्द में उत्पन्न होती है उतनी कहीं अन्यत्र नहीं । नैगमनय और नैगमाभास के उपर्युक्त विस्तृत विवेचन द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य विद्यानंद की दृष्टि अत्यंत सूक्ष्म थी और उनका यह विवेचन नितान्त मौलिक है जिसका स्पर्श उनके पूर्ववर्ती या परवर्ती आचार्य नहीं कर पाये ।
सन्दर्भ
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6.
अणुओगदाराई में पहला प्रकरण - सूत्र - 14, ग्यारहवें प्रकरण में सूत्र - 554 से 557, संपादकआचार्य महाप्रज्ञ, प्रकाशक - जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं, प्रथम संस्करण-1996. षट्खण्डागम में वेदनाखंड तथा वर्गणा खंड, संपादक- ब्र. सुमतिबाई शहा, प्रकाशक - श्रुतभंडार व ग्रंथ प्रकाशन समिति, फटटण (सातारा), 1965
से किं तं नए ? सत्त मूलनया पण्णत्ता, तं जहा - नेगमे संगहे ववहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरूढे एवंभूए- अणुओगदाराई, तेरहवां प्रकरण, सूत्र 715, पृ. 376
अपि च, णेगम-ववहार-संगहा सव्वाओ । उजुसुदो ट्ठवणं णेच्छदि । सद्दणओ णामवेयणं भाववेयणं च इच्छदि ।
7.
-षट्खण्डागम्-, वेदनाखंड, वेदना नयविभाषणता सूत्र, 2,3,4, पृष्ठ-537.
" द्रव्यार्थिकनैगमः पर्यायार्थिकनैगमः द्रव्यपर्यायार्थिकनैगमश्चेत्येवं त्रयो नैगमः । " - वीरसेनाचार्य,
जयधवला भाग-1, प्रकरण-202, पृ. 221-22
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'तत्र पर्यायगस्त्रेधा नैगमो द्रव्यगो द्विधा । द्रव्यपर्याययगः प्रोक्तश्चतुर्भेदो ध्रुवं ध्रुवैः ॥" - आचार्य विद्यानंद कृत तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, श्लोक - 27, पृ. 234
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संपादक व प्रकाशक—पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, कल्याणभवन, सोलापुर, 1956 " त्रिविधस्तावन्नैगमः । पर्यायनैगमः, द्रव्यनैगमः, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति । तत्र प्रथमस्त्रेधा । अर्थपर्यायनैगमो व्यंजनपर्यायनैगमोऽर्थव्यंजनपर्यायनैगमश्च इति । द्वितीयो द्विधा । शुद्ध द्रव्यनैगम, अशुद्धद्रव्यनैगमश्चेति । तृतीयश्चतुर्धा, शुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगमः, शुद्धद्रव्य व्यञ्जनपर्यायनैगम, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमः, अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगमश्चेति, नवधा नैगमः साभास उदाहृतः परीक्षणीयः ।"
- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ. 239
अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्वभावतः । कचिद्वस्तुन्यभिप्रायः प्रतिपत्तुः प्रजायते॥ यथा प्रतिक्षणं ध्वंसि सुखसंविच्छरीरिणः । इति सत्तार्थ पर्यायो विशेषणतया गुणः । तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - सितम्बर, 2000 AIII
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