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________________ तथा द्रव्यत्व के सर्वथा भेद को कथन करना दुर्नय है। संग्रह नय का विषय शुद्ध द्रव्य है और व्यवहार नय का विषय अशुद्ध द्रव्य है। नैगम नय धर्म और धर्मी में से एक को गौण, एक को मुख्य करके विषय करता है। समस्त वस्तु सद् द्रव्य रूप है। यह शुद्ध नैगम नय का उदाहरण है। इस उदाहरण में द्रव्यपना मुख्य है, क्योंकि यह विशेष्य है और उसका विशेषण सत्त्व गौण है। सत्त्व और द्रव्यत्व को सर्वथा भिन्न मानना जैसा कि वैशेषिक दर्शन मानता है, शुद्ध द्रव्य नैगमाभास है। (5) अशुद्ध द्रव्य नैगमाभास- पर्याय और द्रव्य में या गुण और द्रव्य (गुणी) में सर्वथा भेद मानना अशुद्ध द्रव्य नैगमाभास माना जाता है, क्योंकि बाह्य और अन्तरंग पदार्थों में उस प्रकार से भेद का कथन करने में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरोध आता है। द्रव्य का लक्षण गुणपर्यायवत्त्व है। मगर वे गुण और पर्याय द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं है। यदि उन्हें सर्वथा भिन्न माना जायेगा तो दोनों का ही सत्त्व नहीं बनेगा, क्योंकि गुणों के बिना द्रव्य नहीं बनता और द्रव्य के बिना निराधार होने से गुणों का अभाव प्राप्त होता है, जैसे अग्नि के बिना औष्ण्य नहीं रहता और औष्ण्य के बिना अग्नि नहीं रहती। इसी तरह आत्मा के बिना ज्ञानादि गुण नहीं रहते और ज्ञानादि गुणों के बिना आत्मा नहीं रहता। अतः जो नय उनके भेद को मानता है वह नयाभास है। (6) शुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय नैगमाभास- सुख स्वरूप अर्थ पर्याय से सत्त्व सर्वथा भिन्न ही है, इस प्रकार का अभिप्राय दुर्नय है, क्योंकि सुख और सत्त्व को सर्वथा भिन्न मानने में अनेक बाधायें आती हैं, ऐसा नयों को जानने वाले विद्वान् समझते हैं, अतः सुख और सत्त्व को सर्वथा भिन्न मानना शुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय नैगमाभास है। (7) अशुद्धद्रव्यार्थ पर्याय नैगमाभास- सुख और जीव को सर्वथा भेद रूप से कहना तो दुर्नय ही है, क्योंकि गुण और गुणी में सर्वथा भेद कहना प्रमाणों से बाधित है। अतः शुद्ध ज्ञानियों के द्वारा उसे बिना किसी प्रकार के संशय के दुर्नय ही जानना चाहिए अर्थात् सुख और जीव को सर्वथा भिन्न कहना अशुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय नैगमाभास है। (8) शुद्ध द्रव्य व्यञ्जन पर्याय नैगमाभास एवं (9) अशुद्ध द्रव्य व्यञ्जन पर्याय नैगमाभासजो अशुद्ध द्रव्य और व्यञ्जन पर्याय को विषय करता है वह चौथा अशुद्ध द्रव्य व्यञ्जन नैगम नय है। जैसे 'गुणी मनुष्य' यहां गुणी तो अशुद्ध द्रव्य है और मनुष्य व्यञ्जन पर्याय है। उक्त दोनों नयों के द्वारा विषय किये गये द्रव्य और पर्याय का परस्पर में सर्वथा भेद का सर्वथा अभेद के द्वारा जो कथन किया जाता है, वह पहले की तरह दोनों नयों का नैगमाभास जानना चाहिए, क्योंकि द्रव्य और पर्याय में सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद मानने से प्रतीति का अपलाप होता है । द्रव्य और पर्याय में न तो सर्वथा भेद की प्रतीति होती है और न सर्वथा अभेद की प्रतीति होती है। अत: सत् और चैतन्य सर्वथा भेद का सर्वथा अभेद मानना शुद्ध 58 AIINITINITIINI INITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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