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कहना है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति के ही सुख और ज्ञानादिक धर्म है, वे उसी में आविर्भत और तिरोहित होते रहते हैं। इसी प्रकृति के संसर्ग से पुरुष में ज्ञानादि की प्रतीति होती है। प्रकृति इन ज्ञान सुखादि रूप व्यक्त कार्य की दृष्टि से दृश्य है तथा अपने कारण रूप अव्यक्त स्वरूप से अदृश्य है। पुरुष चेतन अपरिणामी कूटस्थ नित्य है । चैतन्य बुद्धि से भिन्न है, अत: बुद्धि चेतन पुरुष का धर्म नहीं है। इस तरह सांख्य का ज्ञान और आत्मा में सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है, क्योंकि चैतन्य और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। बुद्धि उपलब्धि चैतन्य और ज्ञानादि सभी पर्यायवाची हैं। सुख और ज्ञानादि को सर्वथा अनित्य और पुरुष को सर्वथा नित्य मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि कूटस्थ नित्य पुरुष में प्रकृति संसर्ग से भी बंध, मोक्ष
और भोग आदि नहीं बन सकते, अत: पुरुष को परिणामी नित्य ही मानना होगा तभी उसमें बन्ध मोक्षादि व्यवहार घट सकते हैं। तात्पर्य यह कि अभेद निरपेक्ष सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है । नैगमाभास के भेद प्रभेद
__ आचार्य विद्यानन्द ने नैगमाभास के सामान्य लक्षणवत् धर्म धर्मी आदि में सर्वथा भेद दर्शाकर पर्याय नैगम व द्रव्य नैगम आदि आभासों का निरूपण निम्न प्रकार से किया है। (1) अर्थ पर्याय नैगमाभास- शरीरधारी आत्मा में सुख व संवेदन का सर्वथा भेद दर्शाकर नानापने का अभिप्राय रखना अर्थ पर्याय नैगमाभास है। क्योंकि द्रव्य के गुणों का परस्पर में अथवा अपने आश्रयभूत द्रव्य के साथ ऐसा भेद प्रतीति गोचर नहीं है। (2) व्यञ्जन पर्याय नैगमाभास- सत्ता और चैतन्य का परस्पर में अत्यन्त भेद कहना अथवा अपने अधिकरण हो रहे आत्मा से भी सत्ता और चैतन्य का अत्यन्त भेद कहना व्यञ्जन पर्याय नैगमाभास है, क्योंकि गुणों का परस्पर में और अपने आश्रय के साथ कथंचित् अभेद वर्त रहा है। अत: ऐसी दशा में सर्वथा कथन करते रहने से नैयायिक को विरोध दोष प्राप्त होता है। (3) अर्थव्यञ्जनपर्याय नैगमाभास- जो सुख और जीवन को सर्वथा भिन्न अभिमान पूर्वक मान रहा है अथवा सुख और जीवन की आत्मा से भिन्न कल्पना करता है वह अर्थ व्यंजन पर्याय नैगम का आभास है। आयु कर्म का उदय होने पर विवक्षित पर्याय में अनेक समय तक प्राणों का धारण करना जीवन माना गया है और आत्मा के अनुजीवी गुण हो रहे सुख का साता वेदनीय कर्म के उदय होने पर विभाव परिणति हो जाना यहां लौकिक सुख लिया गया है। कभी कभी धर्मात्मा को सम्यग्दर्शन हो जाने पर अतीन्द्रिय आत्मीय सुख का भी अनुभव हो जाता है। वह स्वाभाविक सुख में परिगणित किया गया है। (4) शुद्ध द्रव्य नैगमाभास- समस्त वस्तु सत् द्रव्य हैं क्योंकि सभी वस्तुओं में सत्त्व और द्रव्यत्व के अन्वय का निश्चय है। इस प्रकार से जानने वाला शुद्ध द्रव्य नैगमनय है और सत्त्व तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 SIMITIINIT ANTITIV 57
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