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सत्पना तो शुद्ध द्रव्य है और सुख अर्थ पर्याय है। वहां विशेषण होने के कारण सत् तो गौण है और विशेष्य होने के कारण सुख मुख्य है।” (2) अशुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय नैगम नय- अशुद्ध द्रव्य व उसकी किसी एक अर्थ पर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला अशुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय नैगम नय है। जैसे कि संसारी जीव क्षण मात्र को सुखी है। यहां सुख रूप अर्थ पर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है
और संसारी जीव रूप अशुद्ध द्रव्य विशेष्य होने के कारण मुख्य है। (3) शुद्ध द्रव्य व्यञ्जन पर्याय नैगमनय- शुद्ध द्रव्य व उसकी किसी एक व्यञ्जन पर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला शुद्ध द्रव्य व्यञ्जन पर्याय नैगम नय है। जैसे कि सत् सामान्य चित् स्वरूप है। यहां सत् सामान्य रूप शुद्ध द्रव्य तो विशेषण होने के कारण गौण है और उसकी चैतन्यपने रूप व्यञ्जन पर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है।'' (4) अशुद्ध द्रव्य व्यञ्जन पर्याय नैगम नय- अशुद्ध द्रव्य और उसकी किसी एक व्यञ्जन पर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला अशुद्ध द्रव्य व्यञ्जन पर्याय नैगम नय है। जैसे 'मनुष्य गुणी है ' ऐसा कहना। यहां मनुष्य' रूप अशुद्ध द्रव्य तो विशेष्य होने के कारण मुख्य है और 'गुणी' रूप व्यञ्जन पर्याय विशेषण होने के कारण गौण है।
इस प्रकार आचार्य विद्यानन्द ने नैगमनय के नौ भेद किये हैं। नैगमाभास का स्वरूप
अकलंकदेव (वि. 7वीं शती) के अनुसार गुण-गुणी, अवयव-अवयवी, क्रियाक्रियावान् तथा सामान्य-विशेष में सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है, क्योंकि गुण गुणी से अपनी पृथक् सत्ता नहीं रखता और न गुणों की उपेक्षा करके गुणी ही अपना अस्तित्व रख सकता है। अतः इसमें कथञ्चित्तादात्म्य संबंध मानना ही समुचित है। इसी तरह अवयवअवयवी, क्रिया-क्रियावान तथा सामान्य-विशेष में भी कथंञ्चित्तदात्म्य ही संबंध है। यदि गुण आदि गुणी आदि से बिल्कुल भिन्न स्वतंत्र पदार्थ हों, तो उनमें नियत संबंध न होने के कारण गुण-गुण्यादिभाव नहीं बन सकेगा। अवयव यदि अवयवों से सर्वथा पृथक् हैं, तो उसकी अपने अवयवों में वृत्ति मानने में अनेकों दूषण आते हैं। यथा-अवयवी अपने प्रत्येक अवयवों में यदि पूर्णरूप से रहता है, तो जितने अवयव हैं उतने ही स्वतंत्र अवयवी सिद्ध होंगे। यदि एक देश से रहेगा, तो जितने अवयव हैं अवयवी के उतने ही देश मानने होंगे, उन देशों में भी वह 'सर्वात्मना रहेगा या एक देश से' इत्यादि विकल्प होने से अनवस्था दूषण आता है।
___ जो स्वयं ज्ञान रूप नहीं है वह ज्ञान के समवाय से भी कैसे 'ज्ञ' बन सकता है? अत: वैशेषिक का गुण आदि का गुणी आदि से निरपेक्ष सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है।
सांख्य का ज्ञान सुख आदि को आत्मा से भिन्न मानना नैगमाभास है। सांख्य का
56 ATWITTINATINITIAWIKIWITTITIOWINITITITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109
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