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________________ अतः एक वस्तु के बारे में अनन्त गुणों और दृष्टिकोणों को लेकर अनंत कथन किये जा सकते हैं । इस प्रकार किसी भी विषय के बारे में कोई भी कथन ऐकान्तिक या निरपेक्ष नहीं हो सकता। सारे कथन कुछ विशिष्ट स्थितियों और सीमाओं के अधीन होते हैं एक ही वस्तु के बारे में, अतः जो दो भिन्न दृष्टिकोणों से कथन किए जाते हैं वे एक दूसरे के विपरीत भी हो सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक कथन का सत्य सापेक्षित है। यदि सही रूप से देखना है तो जैन दर्शन के अनुसार हमें प्रत्येक कथन के पहले 'स्यात्' अथवा 'कदाचित्' लगा देना चाहिए। इससे यह सांकेतिक हो सकेगा कि यह कथन सापेक्ष माना है, किसी एक दृष्टि या सीमा के अधीन है और किसी भी तरह निरपेक्ष नहीं हैं। ऐसा कोई कथन नहीं है जो पूर्णतः सत्य या पूर्णतः मिथ्या हो । सभी कथन एक दृष्टि से सत्य हैं तो दूसरी दृष्टि से मिथ्या हैं। इस प्रकार अनेकान्तवाद हमें स्याद्वाद की ओर स्वतः ले जाता है। यदि वस्तुस्थिति वास्तव में अनेकांतिक है तो आवश्यक है कि हम वस्तु से संबंधित अपने कथन में 'स्यात्' शब्द जोड़ दें। वस्तुओं की अनंत जटिलता के कारण कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। बेशक इसका यह अर्थ नहीं है कि हम कोई कथन कर ही नहीं सकते। हां, निरपेक्ष या ऐकान्तिक कथन असंभव है। वस्तु का गत्यात्मक चरित्र हमें केवल सापेक्षित या सोपाधिक कथन करने के लिए ही बाध्य करता है। जैन दार्शनिकों ने अपने इस सिद्धान्त को उस हाथी के द्वारा समझाना चाहा है जिसके बारे में कई अंधे व्यक्ति अपना-अपना कथन कर रहे होते हैं और वे अलग-अलग निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। उनमें से हर कोई हाथी का अपने सीमित अनुभव द्वारा, ज्ञान प्राप्त कर पाता है। हर कोई हाथी के किसी एक हिस्से को छूता है और तद्नुसार उसका वर्णन करता है। जो उसका कान पकड़ लेता है वह हाथी को 'सूप' की तरह बताता है। जो उसके पैर पकड़ता है वह उसे खम्भे की तरह बताता है, इत्यादि। सच यह है कि हाथी को अपनी संपूर्णता में किसी ने भी नहीं देखा है। हरेक ने केवल उसके किसी एक ही अंग का स्पर्श किया है। इसलिए वस्तुतः कोई नहीं कह सकता कि संपूर्ण हाथी कैसा है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है, हो सकता है हाथी सूप की तरह हो अथवा हो सकता है वह खम्भे की तरह हो। 'हो सकता है', 'कदाचित', 'स्यात', 'शायद'-ये शब्द हैं जो बार-बार हमें याद दिलाते हैं कि हम यथार्थ को केवल आंशिक रूप से ही जान पाते हैं । स्याद्वाद इस प्रकार हमें अपने निर्णयों में अत्यंत सावधानी के लिए आमंत्रित करता है। वह वास्तविकता को परिभाषित करते समय हमें सभी प्रकार के मताग्रहों में बचने के लिए सावधान करता है। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 AMRITINITITITIOANINI TIN 47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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