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________________ जैनदर्शन में स्याद्वाद के साथ दार्शनिक सूक्ष्मता और सुकुमारता मानों अपने चरम पर पहुँच जाती है। द्वन्द्व की स्थिति में प्रत्येक पक्ष ऐकान्तिक दृष्टिकोण अपनाता है और यही उसके निराकरण में सबसे बड़ी कठिनाई है। जब तक ऐकांतिक दृष्टि को अपनाये रहेंगे और दूसरे पक्ष के दृष्टिकोण को अनदेखा करते रहेंगे, हम द्वन्द्व को समाप्त करने की बात सोच ही नहीं सकते। इसलिए जैनदर्शन हमें सर्वप्रथम उस वैचारिक-मानसिक गठन को विकसित करने के लिए आमंत्रित करता है जो अनेकान्त और स्याद्वाद की धारणाओं के अनुरूप हो। द्वन्द्व निराकरण की प्रविधियाँ __ आधुनिक मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में द्वन्द्व निराकरण के अनेक उपाय बताए गए हैं। किन्तु ये सारे उपाय तभी सफल हो सकते हैं जब हम कुल मिलाकर अपने मानसिक गठन को इनके उपयुक्त बना सके। कैट्स और लॉयर ने परस्पर विरोधी हितों पर आधारित द्वन्द्व के निराकरण हेतु जिस ओवरऑल फ्रेम व्यापक मनोगठन की चर्चा की है उसमें चार तत्व महत्त्वपूर्ण बताए गए हैं। ये हैं एक दूसरे के लिए सम्मान और न्यायप्रियता (Respect and integrity) सौहार्दपूर्ण संपर्क (Repport) साधनसंपन्नता (Resourcefulness) एक रचनात्मक वृत्ति (Constructive attitude) सम्मान और न्यायप्रियता का अर्थ है कि हम द्वन्द्व की स्थिति में दूसरे पक्ष के विरोधी आचरण के बावजूद उसके लिए एक सकारात्मक दृष्टि को बनाए रखें। हम उसके व्यवहार को भले ही अच्छा न समझें और उसे अस्वीकार कर दें पर मानव होने के नाते उसे जो प्रतिष्ठा और सम्मान मिलना चाहिए, उससे वंचित न करें। न्यायप्रियता का अर्थ है हम अपने प्रति ईमानदार हों और जो भी कहें/करें उसे अनावश्यक रूप से गुप्त न रखें। हमारा व्यवहार पारदर्शी हो। उसमें हम केवल एक ही पक्ष के हित पर विचार न करें। द्वन्द्व के निराकरण हेतु यह भी आवश्यक है कि किसी भी हालात में हम दूसरे पक्ष से अपना सम्पर्क पूरी तरह तोड़ न लें। परिस्थिति को इस प्रकार ढालें कि एक सकारात्मक संबंध बना रह सके और दूसरा पक्ष हमारी बात सुनने/समझने के लिए तत्पर रहे। द्वन्द्व और तनाव से परिपूर्ण परिस्थितियों के दबाव में हम अक्सर एक प्रकार के मानसिक प्रमाद से ग्रस्त हो जाते हैं और उन संसाधनों के प्रति जिनका हम द्वन्द्व निराकरण के लिए उपयोग कर सकते हैं, प्रायः उदासीन हो जाते हैं। अत: यह आवश्यक है कि हम 48 AMI TIWIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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