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________________ अंतरसंगठनात्मक द्वन्द्व दो संगठनों के बीच का द्वन्द्व है। साम्प्रदायिक द्वन्द्व दो संप्रदायों के बीच का द्वन्द्व है। जाहिर है द्वन्द्व के उपरोक्त सभी स्तर (प्ररूप) दो पक्षों के विपरीत हित-अहित के विरोध से उत्पन्न द्वन्द्व हैं। जैन दार्शनिक साहित्य में हमें द्वन्द्व के इन सभी स्तरों का क्रमिक विवेचन नहीं मिलता। लेकिन यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि जैनदर्शन द्वन्द्व के इन सभी प्रारूपों में आंतरवैयक्तिक द्वन्द्व को सर्वाधिक महत्व देता है, क्योंकि द्वन्द्व की आंतरवैयक्तिक स्थिति ही अंततः सभी अन्य स्तरों पर किसी न किसी रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। यदि व्यक्ति के अन्दर द्वन्द्व नहीं है तो स्पष्ट ही वह अपने बाह्य संबंधों में द्वन्द्व की स्थिति नहीं बनने देता है। वस्तुतः द्वन्द्व के मोटे तौर से दो ही आयाम हैं-आंतरिक और बाह्य। जिसने आंतरिक द्वन्द्व पर-अपनी आत्मा में संपन्न होने वाले संघर्ष पर-विजय प्राप्त कर ली है, उसी को सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है अर्थात् वही सुख-दुःख का कर्ता और विकर्ता है। अविजित कषाय और इन्द्रियाँ-इन्हीं को जीत कर निर्बाध विचरण करना सर्वश्रेष्ठ है। अत: महावीर कहते हैं, बाहरी युद्धों (द्वन्द्वों) से क्या? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीत कर ही द्वन्द्व से मुक्त हुआ जा सकता है। किन्तु अपने पर यह विजय प्राप्त करना कठिन अवश्य है। आंतरवैयक्तिक द्वन्द्व, जो व्यक्ति के आंतरिक संघर्ष की ओर संकेत करता है, सभी अन्यान्य द्वन्द्वों के मूल में होता है। यदि मनुष्य आंतरिक द्वन्द्व से उत्पन्न कषायों पर नियन्त्रण प्राप्त कर ले तो वस्तुतः सारे बाह्य द्वन्द्व स्वतः समाप्त हो जाते हैं। अध्यात्म से बाह्य तक एकरूपता है। जैनदर्शन का यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति अध्यात्म को जानता है, बाह्य को भी जान लेता है। इसी प्रकार जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। जैनदर्शन के इस सिद्धान्त को यदि हम द्वन्द्व-स्थिति पर घटित करें तो इससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जायेगा कि बाह्य और आंतरिक द्वन्द्व का मूलस्वरूप एक-सा है। मनोवैज्ञानिक विरोधी युग्म-भावनाएँ जो आंतरिक द्वन्द्व को जन्म देती हैं, वे ही बाह्य युद्ध और द्वन्द्व में भी उपस्थित रहती हैं । वस्तुतः लाभ-अलाभ, मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा की विरोधी युगलभावनाएँ ही अंततः बाह्य द्वन्द्वों पर भी उतनी ही क्रियाशील हैं जितनी व्यक्ति की आध्यात्मिक टूटन के लिए उत्तरदायी हैं। अतः बाह्य द्वन्द्वों से बचने के लिए भी मनुष्य को मूल रूप से स्वयं अपने से ही संघर्ष करना है-अपने कषायों पर ही विजय प्राप्त करना है। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 NAWAIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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