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________________ ५. द्वन्द्व की परिणति द्वन्द्व परस्पर एकांगी दृष्टि के कारण अशुभ भावनाओं और भ्रष्ट आचरण में होते हैं। अशुभ- भावनाओं को जैनदर्शन में 'कषाय' कहा गया है। कषाय - क्रोध, मान, माया और लोभरूपी आत्मघातक विकार हैं। जाहिर है ये सभी अशुभ- भावनाएं द्वन्द्व की स्थिति में दूसरे पक्ष को हानि पहुंचाने में सहायक समझी गई हैं लेकिन साथ ही ये आत्मघातक भी हैं। इन भावनाओं से प्रेरित व्यवहार भ्रष्ट व्यवहार है । द्वन्द्व में सदैव ही कोई न कोई उग्र उद्वेग संलग्न होता हैं जो व्यक्ति में एक विशेष प्रकार के आचरण को प्रेरित करता है और द्वन्द्व में उपस्थित इस उद्वेग का स्वरूप सामान्यतः नकारात्मक ही होता है । अतः द्वन्द्व के निराकरण के लिए इन नकारात्मक उद्वेगों को समाप्त करना अत्यंत आवश्यक है। जैन दर्शन में न केवल ऐसे चार उग्र उद्वेगों (कषायों) का वर्णन किया गया है बल्कि उनसे युक्ति के लिए कषायों की विपरीत भावनाओं को विकसित करने के लिए भी कहा गया है ।" प्रक द्वन्द्व का यदि हम क्षेत्रानुसार वर्गीकरण करें तो इसे कई स्तरों पर समझा जा सकता हैआंतरवैयक्तिक द्वन्द्व मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व । इस प्रकार के द्वन्द्व को व्यक्ति अपनी दो परस्पर विरोधी या असंगत इच्छाओं / वृत्तियों के बीच अनुभव करता है । उदाहरण के लिए जब व्यक्ति अपनी किसी इच्छा की संतुष्टि चाहता है और इतर कारणों से यदि इसे संतुष्ट नहीं कर पाता तो वह ऐसे ही द्वन्द्व में फंसता है । 'चाहूं' या 'न चाहूं' का यह द्वन्द्व उसे नकारात्मक भावों से भर देता है। इस प्रकार मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व विपरीत कामनाओं का और उनकी संतुष्टि - असंतुष्टि का द्वन्द्व है। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, निन्दा - प्रशंसा, मान-अपमान आदि भावनाओं से संबंधित द्वन्द्व, जिनका जैन दार्शनिक साहित्य में यथेष्ट उल्लेख हुआ है - इसी प्रकार के मानसिक द्वन्द्वों की ओर संकेत करते हैं। इस प्रकार के द्वन्द्व में व्यक्ति आंतरिक रूप से टूट जाता है और समझ नहीं पाता कि वह क्या करे । अंतरवैयक्तिक द्वन्द्व, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच निर्मित होने वाले द्वन्द्व हैं । इस प्रकार के द्वन्द्व में दो व्यक्तियों के बीच अपने-अपने वास्तविक या कल्पित हित को लेकर विरोध होता है। इसमें एक व्यक्ति का हित दूसरे के अहित के रूप में देखा जाता है। सामुदायिक द्वन्द्व व्यक्ति और समूह (समुदायों) के बीच का द्वन्द्व है। अंतर - सामुदायिक द्वन्द्व दो समूहों (समुदायों) के बीच का द्वन्द्व है। संगठनात्मक द्वन्द्व व्यक्ति और जिस संगठन में वह कार्य करता है उसके बीच का संघर्ष है। 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only \\\\\\ तुलसी प्रज्ञा अंक 109 www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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