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परिवेष्टन तीनों एकजीवी होते हैं। पत्र प्रत्येकजीवी तथा पुष्प अनेकजीव अधिष्ठित होता है । पुष्यफल, कालिंग तुंब, त्रपुस, एलबालुंक, बालुंक, घोषाटक, पटोल, तिन्दुक, तिन्दुस इनके वृन्त, गुदा और गिरी तीनों एक जीव अधिष्ठित होते हैं ।
सप्पास (सपाश्व) सर्जक, दव्वहेलिया कुहण कुन्दुक्क इन्हें अनन्तकायिक माना गया है। कंदुक्क वनस्पति में भजना है । देशविशेष से वह अनन्तकायिक भी हो सकती है और असंख्यजीवी भी होती है। (प्रज्ञापना पद १ सू ४८ गा ४२-५० )
साधारण और प्रत्येक जिज्ञासा के घेरे में
ग्रंथकार ने प्रत्येक और साधारण वनस्पति के बीच यह भेद रेखा खींची है किन्तु स्थूल बुद्धि के लिए पर्याप्त नहीं है। प्रश्न यह उठता है कि अनन्तकायिक वनस्पति वर्ग में जितने शब्द आये हैं उसके मूल, कंन्द, स्कन्ध, प्रवाल, त्वचा, पत्र, पुष्प और फल सारे अनन्तकायिक होते हैं या नहीं?
यदि सारी अवस्थायें अनन्तकायिक होती हैं तब प्रत्येक वनस्पति में इनका संक्रमण क्यों हुआ ? इनका भी अलग वर्ग होना चाहिए। यदि सारी अवस्थायें अनन्तकायिक नहीं होती हैं तब किस अवस्थाको केन्द्र में मानकर इस वर्ग का निर्धारण किया गया है। प्रत्येक वनस्पति के लिए सूत्र में निर्देश है कि उसके मूल, कन्द, स्कन्ध त्वचा, शाखा, प्रवाल में असंख्यात पत्र में एक जीव तथा पुष्प में अनेक जीवों का निर्देश है वैसे साधारण वनस्पति के लिए कोई निर्देश नहीं है ।
प्रकीर्णक गाथा ५० में जिन वनस्पतियों का उल्लेख है उन वनस्पतियों का जलरूह प्रत्येक वनस्पति में भी उल्लेख है। प्रश्न यह उठता है ये दोनों वनस्पतियां एक हैं या दो, क्योंकि यहां इन्हें अनन्तकायिक माना है। यदि ऐसा माना जाए कि देश-विदेश की अपेक्षा से ये दोनों ही प्रकार की हो सकती हैं तब ग्रन्थकार को कंडुक्क वनस्पति जो इसी गाथा में आई है उसमें भजना मानी है। उसकी तरह इनमें भी भजना कहनी चाहिए थी ।
प्रकीर्णक गाथा ४३ में पलंडू, ल्हसणकन्द, कंदली और कुस्तुम्भ को प्रत्येकजीवी कहा है। उत्तराध्ययन में इनको अनन्तकायिक में लिया गया है
पलंडू ल्हसणकंदे य कंदली कुडुंबए। एए परित्त जीवा जो यावण्णे तहाविहा ।
प्रज्ञापना पद १ सू ४८/४३ । साहारणसरीरा उ, णेगहा ते पकित्तियां ... पलंदू लसणकंदे य कंदली य कुडुंब ॥
उत्तराध्ययन ३६ / ९६, ९७
ये गाथाएं विमर्श मांगती हैं कि दोनों में यह अन्तर क्यों? इन्हें अनन्तकायिक माना
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - सितम्बर, 2000
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