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इस सन्त परम्परा का जादू ऐसा सिर पर चढ़कर बोला कि एक ईसाई मतावलम्बी माइकेल मधुसूदन दत्त ने 'विरहिणी ब्रजांगना' काव्य लिखा। उसी का अनुवाद 'मधुप' उपनाम से श्री मैथिलीशरण गुप्त ने हिन्दी में किया। अक्सर प्रश्न पूछा जाता है कि रवीन्द्रनाथ वैष्णव थे (जैसे 'भानुसिंह र पदावली' से स्पष्ट है) या ब्रह्मसमाज के संस्थापक? उनके पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर होने से वे वेदान्ती थे या ईसाई प्रभाव के कारण 'रहस्यवादी'। रामचन्द्र ने लिखा है कि रविन्द्रनाथ ने गीतांजली में लिखा है
कर्म जखन प्रबल आकार, गरजि उठिया ढ़ाके चारि धार, हृदय-प्रान्ते, हे जीवननाथ, शान्त चरणे एशो। १ । आपनारे जब करिया कृपण कोणे पड़े थाके दीन हीन मन दुवार खुलिया, हे उदार नाथ। राज-समारोहे एशो॥२॥
(कर्म जब प्रबल आकार लेकर गर्जन करते हैं और चारों ओर से ढांक देता है तब मेरे हृदय प्रान्त में हे जीवन नाथ! शान्त चरणों से आओ!
जब अपने आपको कृपण बनाकर दीन हीन मन एक कोने में पड़ा रहता है तब द्वार खोलकर हे उदार नाथ! राज-समारोह से आओ)
रविन्द्रनाथ ठाकुर की रचनाओं में केवल भक्ति का स्वर नहीं है। वह समाज के विविध पक्षों पर भी पद्य में और गद्य में लिखते हैं। उसी गीतांजलि में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि वैराग्य साधना में मेरी भक्ति नहीं है या भजन पूजन, साधन-आराधन सब छोड़ दो। देवालय के अंधेरे रुद्ध कोने में भगवान नहीं है। वहां जाओ, जहां किसान खेती कर रहा है, बारह महीने कष्ट में है। जाओ, जहां पत्थर कट रहा है। सामाजिक प्रतिबद्धता का यह हाल था कि उन्होंने विश्व के देशों में संकीर्ण राष्ट्रवाद, अधिनायकवाद और युद्ध-पिपासा पर प्रहार किया। उनका प्रसिद्ध गीत हैं-हिंसाय उन्मत पृथ्वी, सिन्धी भाषा में भजन हैं -
'तेरा मकान आला जित्थे कित्थे वसी भी तूं ॥ ...हलो तो बाजार देखू आगा हली पसूं।। बाजार मिडयो हि आदम, आदम जो दम भी तूं॥ हलो तो मन्दिर देखू आगा हली पसूं। मन्दिर मिडयो हि मूरत, मूरत जो सूरत भी तूं।
'जहां देखता हूं उधर तू ही तू है, वाली सूफी भावना से प्रेरित होकर उर्दू कवियों ने बहुत कुछ लिखा है। इस पैकरेखाकी में इकबाल ने खुदा से भी बड़ी खुदी को देखा। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 AMAITANY I NITIIIIIIIIINV 29
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