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________________ हर छोटा से छोटा अनुयायी इस अहंकार में लिप्त हो जाता है कि वह भी वैसा ही बड़ा सन्त है, जैसा उसका गुरु है। इसीलिए बार-बार महापुरुषों ने कहा है कि 'मुझे मेरे अनुकरण करने वालों से बचाओ!' जैसे हमने ऊपर हिन्दी-भाषी, मराठी भाषी सन्तों का साक्ष्य दिया, गुजरात में भी महान सुधारक, महान साधक इस शताब्दी में दयानंद सरस्वती और महात्मा गाँधी यों ही नहीं पैदा हुए। आशु कवि राजेन्द्र जैन गाँधीजी को प्रभावित करने वाले एक अद्भुत साधक थे। गुजराती भक्त कवियों पर वैष्णव साधना का विशेष प्रभाव था। जैन कवियों के 'रास' और 'फागू', वैष्णव कवियों की 'गरबी' और 'मामेरुं' अपने ढंग की रचनाएँ हैं। प्रीतम नायक अन्य गुजराती मध्ययुगीन कवि का मानना है कि 'संत कृपा थी छूटे माया, काया निर्मल थाय।। जोने/श्वासोश्वासे स्मरण करता, पांचे पातक जाय जोने॥" बंगाल की सन्त-साधना में शैव, शाक्त, तांत्रिक, वैष्णव, बौद्ध, 'मुस्लिम, सूफी और अन्त में रोमन कैथोलिक (दौम तौपस) अनेक विचार धाराओं का पचमेल, अद्भुत समन्यव और संश्लेषण मिलता है। यह चयागीति और 'दोहा कोश' के सिद्धनाथों से धारा आरम्भ होकर विद्यापति की राधा-कृष्ण रह:केलि का वर्णन करती हुई, बड़ चंडीदास तक आ पहुंचती है। इसमें चैतन्य का प्रभाव है। रूप गोस्वामी और जीव गोस्वामी की 'अचिंत्यभेदाभेद लीला' है। सबसे मजे की बात यह है कि मुस्लिम बाडल (व्याकुल या बावले या बेहाल) भी उसी रंग में मर्नर मानूस और 'अचिन पारवी' की विरह-वेदना से रंगे हैं। इनमें सहजिया बौद्ध पंथ भी मिले हुए हैं और मिले हैं प्रेमाख्यात्मक कवि कुतुबन और मंझन के लोक-काव्य 'लोरिक-चन्दा' की रूप कथाएं। यहां सन्त-परम्परा और समाज की कलाप्रियता का विचित्र संगम पाया जाता है। अतुलप्रसादी और रामप्रसादी गान मातृ-प्रेम से रंजित इसी परम्परा में दरिद्रनारायण की सेवा करने वाले श्री रामकृष्ण परमहंस आये। 'नारायण मिले अन्त में, हंस के निराला ने कविता लिखी। निराला ने 'रामकृष्णवचनामृत' के कई खंडों का हिन्दी में अनुवाद किया। रामकृष्ण के ही परम शिष्यों में श्री नरेन्द्रनाथ दत्त आये। उन्होंने विश्वभर में भारतीय दर्शन और योग की समाजपरकता की ध्वजा उत्तेजित की। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि जग में सारी मानव जाति के लिए प्रेम-भाव व परम सहिष्णुता पैदा होना ही साधुता की सच्ची कसौटी है 28 AIMINIIIIIIII WI NITIV तुलसी प्रज्ञा अंक 109 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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