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________________ सन्त काव्य का साक्ष्य भारत की सभी भाषाओं में उत्तर, दक्षिण, पूर्व पश्चिम सर्वत्र पाया गया है। वे मनुष्य और ईश्वर को एकाकार जानते हैं। मनुष्य की सेवा ही सर्वोच्च ईश्वर -- सेवा है, ऐसा वे मानते हैं । यह आरोप है कि सन्त पलायनवादी होते हैं । वे जनस्थान छोड़कर वन - पर्वत एकान्त में भाग जाते हैं। यह सही नहीं है । वे बार-बार याद दिलाते हैं- 'काहेरे बन झोन जाई ?' 'साधो सहज समाध भली' गाने वाले और 'पार उतर गये सन्त जनारे' यह टेर देने वाले सन्त कबीर से कहा कि 'हरि भक्त सन्त सज्जन पैदा न हुए होते तो जल मरता संसार । तुलसीदास ने लिखा कि जब किसी ने सन्त को पहचान लेने का दावा किया तो मैंने कानों पर हाथ रख लिये । तुलसीदास ने अपने एक पद में प्रभु चरणों की महिमा गाई है'सोई चरन संतन जन सेवत सदा रहत सुखदाई। सोई चरन गौतम ऋषि नारी परसि परम गति पाई । ' - मीरा ने भी बार-बार कहा है- 'तज कुसंग सत-संग बैठ नित, हरि-चरचा सुन लीजै 1 नितानन्द ने 'या निशा सर्व भूतानि तस्यां जागर्ति संयमी' की ही बात अपनी भाषा में लिखी , क्यों सोया ग़फ़लत का मारा, जाग रे नर जाग रे । या जाके कोई जोगी भोगी, या जागे कोई चोर रे । या जागे कोई संत पियारा, लगी राम सों डोर रे ॥ ऐसी जागन जाग पियारे, जैसी ध्रुव प्रहलाद रे । ध्रुव को दीनी अटल पदवी, प्रहलाद को राज रे । मन है मुसाफिर तनुका सरा बिच, तू कीता अनुराग रे । रैन बसेरा कर ले डेरा, उठ चलना परभात रे ॥ साधु-संगत सतगुरु की सेवा, पावे अचल सुहाग रे । नितानन्द भज राम, गुमानी। जागत पूरन भाग रे ॥ ब्रह्मानंद ने बताया कि 'संतन की सोबत, मिलत है प्रगट मुरारी ।. संत मनुष्य और मनुष्य से अपर जो भी परम सत्ता है, उनके बीच में सोपान का कार्य करते हैं। गलती वहीं शुरू होती है जब संत को धीरे-धीरे उसके अनुयायी एक संस्था, या पंथ या मठ बना देते हैं। वहां जंगम स्थावर हो जाता है । तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - सितम्बर, 2000 Jain Education International For Private & Personal Use Only 27 www.jainelibrary.org
SR No.524603
Book TitleTulsi Prajna 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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