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इस निबन्ध का मूल प्रतिपाद्य विषय दिगम्बर जैन परम्परा के अन्तर्गत संघ, गण, गच्छ, अन्वय, कुल आदि की परम्परा और उसके स्वरूप का विवेचन एवं प्रतिपादन करना है। किसी भी संघ में गण, गच्छ आदि विभिन्न इकाइयाँ मूलतः विशाल संघ के सुचारू रूप से संचालन हेतु निर्मित हुई थीं। क्योंकि विशाल संघ के सुचारू रूप से संचालन हेतु संघ के कार्यों को विभाजित करके उनका व्यवस्थित कार्यान्वयन करना होता है । किन्तु देश, काल आदि के कारण इनकी आचार व्यवस्था में अन्तर पड़ता गया, जिन्होंने विभिन्न परम्पराओं अर्थात् संघों, गणों, कुलों, गच्छों आदि का रूप ले लिया। इनके विवेचन हेतु संघ, गच्छ आदि का स्वरूप प्रस्तुत है।
मूलतः इन इकाइयों में 'गच्छ' से तात्पर्य साथ-साथ रहने वाले श्रमणों के एक निश्चित समूह से था। जितने श्रमण एक साथ रहकर विहार एवं चातुर्मास करते हैं उनके समूह को 'गच्छ' कहते हैं । विभिन्न गच्छ मिलकर 'कुल' का रूप धारण करते हैं। अत: एक ही आचार्य के शिष्य-प्रशिष्यों के समूह को 'कुल' कहा जाता है।
कुलों में एक ही प्रकार की आचार-विचार प्रणाली का अनुसरण करने से ये सब मिलकर 'गण' कहलाते हैं अर्थात् 'गण' का रूप धारण कर लेते हैं और गणों का समूह 'संघ' कहलाता है। इनका विवेचन प्रस्तुत हैसंघ -सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय से युक्त श्रमणों के समूह को संघ कहते हैं। अथवा जो श्रम अर्थात् तपस्या करते हैं उन्हें श्रमण कहा जाता है तथा ऐसे श्रमणों के समुदाय को श्रमण संघ कहते हैं।
मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ अथवा ऋषि, मुनि, यति और अनगार रूप चातुर्वर्ण्य संघ चारों गतियों (नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्य) में भ्रमण का नाशक होता है, अतः नव-प्रसूता गाय जैसे अपने बछड़े पर वात्सल्य करती है, वैसे ही प्रयत्नपूर्वक संघ पर वात्सल्य भाव रखना चाहिए। नन्दिसूत्र में संघ को कमल की तरह बतलाया गया है। क्योंकि यह कमल रूपी संघ कर्मरज रूप जलराशि से अलिप्त ही रहता है। श्रुतरत्न (ज्ञान या आगम) उसका दीर्घनाल है। पंचमहाव्रत उसकी स्थिर कर्णिका तथा उत्तरगुण उसका मध्यवर्ती केशर (पराग) है, जो श्रावक रूपी भ्रमरों से सदा घिरा रहता है, जिनदेव रूप सूर्य के तेज से प्रबुद्ध होता है तथा जिसमें श्रमणगण रूप सहस्र पत्र होते हैं। यह 'संघ' का स्वरूप है। इसके प्रमुख को 'आचार्य' कहा जाता है। गण-स्थविर-मर्यादा के उपदेश या श्रुत में वृद्ध श्रमणों (स्थविरों) की सन्तति (परम्परा) या उनके समूह को 'गण' कहते हैं । गण के प्रधान गणाचार्य, गणी या गणधर कहलाते हैं। आचारांग की शीलांकवृत्ति में कहा है कि जो आचार्य नहीं है किन्तु बुद्धि से आचार्य के सदृश तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2000 NITITIT INITI IIIIIIIIII 13
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